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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बंगाल काश्तकारी कानून)। दखली जोतकी हस्तान्तरणीयता दस्तूरपर निर्भर करती है। चम्पारनमें आम दस्तूर यह बताया जाता है कि जमींदारकी अनुमतिके बिना कोई हस्तान्तरण नहीं हो सकता। इस प्रकार जमींदार उत्तराधिकारके अतिरिक्त किसी और नियमसे होनेवाले मान्यता प्राप्त हस्तान्तरणोंके लिए कानूनी तौरपर शुल्क ले सकता है, और सामान्यतया यही व्यवहार प्रचलित भी जान पड़ता है। किन्तु, साथ ही हमारा यह भी खयाल है कि जहाँ सम्भव हो――जैसे कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अन्तर्गत आनेवाले राजों में――शुल्कका कोई एक-सा मान अपना लिया जाये तो अच्छी व्यवस्थाके विचारसे यह अच्छा होगा। आवश्यकता होनेपर इस मानमें समय-समयपर परिवर्तन किये जा सकते हैं, और जब हस्तान्तरी निर्धारित शुल्क देनेको तैयार रहेगा तब भी इस मानके कारण जमींदारके निषेधाधिकारमें कोई विघ्न नहीं पड़ेगा, क्योंकि शुल्क तो तभी लिया जायेगा जब कि हस्तान्तरणपर स्वीकृति मिल चुकी हो। अतएव, हमारी सिफारिश है कि कोर्ट ऑफ वार्ड्सके अन्तर्गत आनेवाले राजोंमें समय-समयपर शुल्कका एक उचित मान निर्धारित किया जाये, और उसे प्रत्यक्ष अथवा अस्थायी पट्टेवाले गाँवोंमें लागू किया जाये और जहाँतक मुकर्ररी पट्टेपर दिये गये गाँवोंका सवाल है, राज पट्टेदारोंको भी यह नीति अपनानेको प्रेरित करनेके लिए अधिकसे-अधिक प्रयत्न करे।

नामोंके दाखिल-खारिजके लिए दी जानेवाली अर्जियोंके सम्बन्धमें बेतिया राजने जो प्रक्रिया अपना रखी है, उसकी बड़ी आलोचना की गई है। अभी सम्बन्धित पक्षोंका बेतियामें हाजिर होना आवश्यक होता है; इससे अकारण असुविधा होती है; क्योंकि स्थानीय जाँच तो बराबर की ही जाती है। साथ ही हमें यह वांछनीय नहीं लगता है कि ऐसी अर्जियोंको निबटानेका अधिकार ठेकेदारोंको हो――भले ही किसानोंको उनके निर्णयके विरुद्ध मैनेजरके पास अपील करनेकी सुविधा भी प्राप्त हो। इसलिए हमारी सिफारिश है कि दाखिल-खारिज करनेका अधिकार राजके मैनेजरको हो, किन्तु यदि प्रार्थी चाहे तो वह ठेकेदारकी मारफत अपनी अर्जी भेज सके; ठेकेदार उसे अपनी रिपोर्टके साथ मैनेजरके पास भेज दे और जब मैनेजरसे आदेश प्राप्त हो जाये तब वह उसकी सूचना प्रार्थीको दे दे।

चमड़ा-सम्बन्धी अधिकार

१७. अभी हालमें एक शिकायत बहुत जोरोंसे की जाने लगी है। इसका सम्बन्ध बेतिया राज और रामनगर राज तथा उनके कुछ पट्टेदारोंके इस दावेसे है कि सभी मृत पशुओंके चमड़ोंपर उनका अधिकार है। पिछले कुछ वर्षोंसे चमड़ेकी कीमत बढ़ जाने से स्वामित्वका यह सवाल अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। पहले दस्तूर यह था कि एक छोटीसी रकम अदा करके चमार राजसे ग्राम-विशेषके चमड़ेपर अधिकारका पट्टा ले लेता था, और उधर काश्तकारको एक निश्चित संख्यामें जूतोंके जोड़े और अन्य सामान दिया करता था। इसके अतिरिक्त उसकी पत्नी भी दाईके रूपमें काश्तकारके घर सेवा-टहल कर दिया करती थी। किन्तु, अब यह सब बदल गया है। चरसा महालके नामसे ज्ञात बेतिया राजकी आमदनीका यह स्रोत विभिन्न लोगोंको पट्टेपर दे दिया गया। इनमें से कुछ लोग तो ऐसे थे, जिन्होंने बहुत बड़े क्षेत्रमें चमड़ेके स्वामित्वका अधिकार प्राप्त कर