पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/६४८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६१२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी आसान हो जाता है कि आम तौरपर लगानकी रसीदें तबतक नहीं दी जाती हैं जबतक कि वर्ष-भरकी अदायगी पूरी नहीं हो जाती। फिर, उपजके रूपमें चुकाये गये लगानके लिए कोई रसीद नहीं दी जाती। बंगाल काश्तकारी कानूनकी अनुसूची २ में रसीदका जो फार्म निर्धारित किया गया है, उससे स्पष्ट है कि विधान-मण्डलका इरादा यह था कि किसी भी वर्षमें की गई लगानकी पहली अदायगी काश्तकारको दी गई रसीदमें दर्ज कर दी जाये और काश्तकार आगे जब भी कोई अदायगी करे तो उसे दर्ज करवाने के लिए वह रसीद फिर पेश करे। हमारी स्थानीय जाँचोंके दौरान हमें बताया गया कि ऐसी कोई पद्धति चम्पारनके लिए उपयुक्त नहीं होगी, क्योंकि काश्तकार आगेकी किश्तकी अदायगी करते समय पहली रसीद पेश नहीं कर पाता है। यदि कानूनकी पाबन्दी करनी हो तो दूसरी पद्धति यह है कि हर अदायगीके लिए पूरी रसीद दी जाये। इससे लिखा-पढ़ीका काम बहुत बढ़ जायेगा, क्योंकि लगान बराबर छोटी-छोटी किस्तोंमें चुकाया जाता है। हमारे विचारसे इन मध्यवर्ती अदायगियोंके लिए किसी-न-किसी प्रकारकी रसीद देना आवश्यक है, यद्यपि उस रसीदको निर्धारित फार्मकी तरह विशद बनानेकी जरूरत नहीं है; और इसलिए हम सिफारिश करते हैं कि स्थानीय सरकारको चाहिए कि वह खण्ड ५६ (३) के उपबन्धके अन्तर्गत अपनी सत्ताका उपयोग करके मध्यवर्ती अदायगियोंके लिए एक सीधे-सादे ढंगकी रसीद निर्धारित कर दे, और पूरे विवरणवाली रसीद अन्तिम अदायगीके लिए सुरक्षित रखी जाये। मध्यवर्ती रसीदमें सिर्फ काश्तकारका नाम और खतियान नम्बर तथा तिथि-सहित अदा की गई रकम और जिस खाते रकम जमा की जाये उस खातेका नाम देनेकी जरूरत है।

ठेका-पट्टेका नवीकरण

१५. हम अनुच्छेद ३ में बता चुके हैं कि इस जिलेमें ठेकेदारी प्रथा कितनी अधिक प्रचलित है। यदि हम ऐसा मानते हैं कि अतीतकी बुराइयोंका इस प्रथासे अविच्छेद सम्बन्ध रहा है और भविष्यमें भी इस प्रथाके अन्तर्गत जमींदारों और काश्तकारोंके सम्बन्ध अच्छे नहीं हो सकते, तो इस प्रथाकी परिसमाप्तिकी सिफारिश करना हमारा कर्त्तव्य है। और यद्यपि हम निःसन्देह, ऐसा मानते हैं कि जमींदारों और काश्तकारोंके सम्बन्ध, साधारणतया, कोर्ट ऑफ वार्ड्सकी नियमावलीमें बताई गई सामान्य नीतिपर आधारित सीधी व्यवस्थाकी कार्यक्षम प्रणालीके अन्तर्गत ही सर्वोत्तम रीतिसे अच्छे बनाये जा सकते हैं; फिर भी हमारा खयाल है कि उपयुक्त ढंगकी ठेकेदारी प्रणालीके अधीन भी यह सम्भव है। हम इस प्रणालीके किसी भी प्रकारके विस्तारके विरुद्ध हैं, और यदि किसी कारणसे किसी गाँवका पट्टा नया नहीं किया जाता तो उसे किसी दूसरे ठेकेदारको पट्टेपर देनेसे यह अधिक अच्छा है कि उसे सीधी व्यवस्थाके अन्तर्गत ले लिया जाये। बेतिया और रामनगर राजोंकी ठेकेदारी प्रणालीकी रचना कोर्ट ऑफ वार्ड्सने नहीं की थी। बहुत-से ठेकेदारोंकी हैसियत काफी पुरानी है। इनके अतिरिक्त उनके पहलेके सम्बन्धोंसे उत्पन्न कुछ और कारण भी हो सकते हैं, जिनको देखते हुए नीतिमें एकाएक परिवर्तन कर देना उपयुक्त नहीं लगता। यदि ठेकेदारोंके आचरण