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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बंगाल काश्तकारी कानून ८ के खण्ड ७४ में भी इस निषेधपर जोर दिया गया। पिछले कई वर्षोंसे बेतिया राजके प्रत्यक्ष प्रबन्धके अधीन आनेवाले गाँवोंमें कोई अबवाब वसूल नहीं किया गया है। किन्तु, यद्यपि राजने उससे कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं उठाया, फिर भी गैर-निलहे संस्थानोंके ठेकेदार ऐसी वसूली करते रहे; और आखिर अभी हालमें नये बन्दोबस्तके समय इस गैर-कानूनी कार्रवाईकी ओर ध्यान दिलानेपर कोर्ट ऑफ वार्ड्सने दर्ज किये हुए लगान और अधिकृत महसूलोंके अलावा और किसी प्रकारकी रकम वसूल करनेकी मनाही करते हुए आदेश जारी किये। हमने जो गवाहियाँ लीं, उनसे पता चलता है कि यह कार्रवाई अपने उद्देश्यकी दृष्टिसे सफल सिद्ध हुई है। कुछ निलहे संस्थानोंमें हमने देखा कि किसान फरखावन नामसे सालाना एक छोटी-सी रकम अदा किया करते हैं। यह रकम आम तौरपर सीधे पटवारी द्वारा लगान-वसूलीके समय ली जाती है। यह दस्तूर भी गैरकानूनी है, क्योंकि पटवारीके वेतनका दायित्व जमींदारोंपर है। रामनगर राजमें अबवाबकी नियमित वसूली अब भी प्रचलित है। हमें एक ऐसा पट्टा दिखाया गया, जिसमें निर्देश है कि अमुक अबवाव उस राज्यके ठेकेदारको दिये जायेंगे। इसके अलावा उसमें एक ऐसी धारा भी है, जिसके द्वारा ठेकेदार कुछ ऐसे महसूल वसूलनेको भी बँधे हुए हैं, “जो काश्तकारों और बनियोंसे पुराने रिवाजके अनुसार लिये जाते हैं।” ठेकेदारों द्वारा लिये जानेवाले अबवाबके कई नाम[१] हैं, जिनमेंसे अधिकांश नाम बहुत पुराने समयसे चले आ रहे हैं। लेकिन इस प्रणालीका पूर्ण विकास अपेक्षाकृत हालकी बात जान पड़ती है, और यह उन्नीसवीं सदीके अन्तिम चरणसे अधिक पुरानी नहीं होगी। इस पूर्णता तक पहुँचनेके लिए इस प्रणालीको पुराने अबवाबकी वृद्धि और उनके एकीकरणकी अवस्थाओंसे गुजरना पड़ा है, और उस एकीकृत उगाहीको तबसे अमूमन ‘सलामी’ या ‘पानी खर्चा’ के नामसे जाना जाता है। इस उगाहीको कहीं-कहीं――जैसे मसुरारी संस्थानमें――तिन-कठिया भी कहा जाता है――सो इसलिए कि यह नील-सम्बंन्धी दायित्वसे कुछ मिलती-जुलती है, यद्यपि इसके अन्तर्गत नील उपजाने-जैसी कोई बात नहीं होती। इस उगाहीकी रकम आम तौरपर ३ रुपये से लेकर ३-८-० रुपये प्रति बीघे होती है, जिसका मतलब हुआ लगानमें ६० से १०० फीसदी तक की वृद्धि। इस राजके यूरोपीय ठेकेदार नियमपूर्वक इस ढंगके अबवाबकी उगाही कर रहे हैं, यद्यपि उन्होंने अभी हालतक नीलका कोई उत्पादन नहीं किया। इनके अतिरिक्त कुछ भारतीय ठेकेदार तथा छोटे-छोटे मालिकान भी ऐसी उगाही करते रहे हैं। जिलेके शेष हिस्सोंमें अबवाबकी नियमित उगाहीकी कोई शिकायत नहीं सुननेको मिली, और ऐसा लगता है कि कमसे-कम अभी हालके कुछ वर्षोंमें किसी विशेष उद्देश्यसे――उदाहरणार्थ, यदि मालिकके परिवारमें किसीका

 
  1. १. इनमें से मुख्य हैं बंधबेहरी (नदी, तालाब आदिके बाँधसे सम्बन्धित), पैनखर्चा (सिंचाईसे सम्बन्धित), चुल्हिआवन और कोल्हुआवन (गुड़ बनानेकी भट्टी और तेलके कोल्हूपर), बपही-पुतही, मरवच और सगौरा (मृत्यु और विवाहपर), हिसबना, तहरीर, जंगल-इस्मनवीसी, वॅटछपी (नापतोलकी चीजोंपर), दसहरी और चैतनवमी, गुरुमेंटी और उपरोहिती। ये अववाब बरावर इन्हीं नामोंसे वसूल नहीं किये जाते थे; एक गाँव में इनका नाम कुछ होता था तो दूसरेमें कुछ।