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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्राप्त करनेका दावा नहीं कर सकता था। इसका मतलब यह हुआ कि किसी काश्तकारके नाम जमीन बन्दोबस्त करते समय कोई अस्थायी जमींदार काश्तकारीके साथ ऐसी शर्त लगा सकता है, जिसके लाभपर केवल वही दावा कर सके। इस स्थितिके समर्थनमें हमारे सामने कोई भी कानूनी प्रमाण पेश नहीं किया गया, और हमें यह स्थिति कतई स्वीकार नहीं है। यदि काश्तकारीके साथ कोई शर्त लगाई जाती है तो पट्टेदार उसके लाभका उपभोग तभीतक कर सकता है जबतक उसके पास उस जमीनका पट्टा है――उसके बाद नहीं। बेतिया राजने नील-सम्बन्धी शर्तका दावा न किया है और न अब कर रहा है; और फैक्टरियोंने जिस रूपमें हमारे सामने अपना दावा पेश किया है, उस रूपमें तो, हमारा खयाल है, उसे बिलकुल अस्वीकार कर देना चाहिए।

इसलिए हमें लगता है कि चाहे किसी भी सिद्धान्तका सहारा लिया जाये, अस्थायी पट्टेवाले गाँवोंमें तावान लेना उचित नहीं था। अदायगी अनुबन्धकी समाप्तिके लिए की गई थी, इस कथनका उत्तर यह है कि काश्तकार पैसे देकर इस चीजको खरीदनेके लिए आतुर नहीं थे, और न यह――यानी नील-उत्पादनके दायित्वसे अन्तिम मुक्ति फैक्टरी द्वारा बेची जानेवाली चीजोंमें कोई सर्वोपरि चीज थी। अगर यह कहा जाता है कि जिन शर्तोंपर काश्तकारोंको जमीनकी काश्तकारी दी गई थी, उनमें से एकके अनुसार वे नील-उत्पादनके दायित्वसे बँधे हुए थे तो यह स्पष्ट है कि अदायगीका स्वरूप उस हदतक सारे लगानको एक मुश्त वसूल करने जैसा हुआ; और तब कहना होगा कि यह ऊपरके जमींदारके हितोंके लिए हानिकर हुआ। चूँकि तावान लेनेकी बातके सम्बन्धमें बेतिया राजको जानकारी थी और उसने उसे रोकनेके लिए कोई कार्रवाई नहीं की इसलिए हमारा विचार है कि राजको भी इस सम्बन्धमें अपने ऊपर कुछ जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। हमारी सिफारिश है कि जहाँ अस्थायी पट्टेवाले गाँवोंमें तावान लिया गया, वहाँ बेतिया राज अस्थायी पट्टे नये करनेके लिए एक यह शर्त लगा दे कि तावानके रूपमें प्राप्त की गई रकमको २५ प्रतिशत राजको दे दिया जाये; और फिर हमारी सिफारिश यह भी है कि राज उस रकमको सम्बन्धित काश्तकारोंको वापस कर दे। इसके अतिरिक्त चूंकि तावानको कमसे-कम अंशतः पंजीकृत लगान मानना है, इसलिए हम सिफारिश करते हैं कि बेतिया राज सात वर्षों तक के लिए, मूल्य-वृद्धि आदिके कारणोंसे बन्दोबस्त अदालतों द्वारा अनुमति प्राप्त होनेपर भी, ऐसे काश्तकारोंके सम्बन्धमें लगान बढ़ानेका अधिकार छोड़ दे, जिन्होंने तावान दिया है।

हमें यह सूचना मिली है कि ऐसे कुछ मामलोंमें, जहाँ अभी हालमें गाँव किसी फैक्टरीके पट्टेके अधीन आये थे, प्रबन्धकोंने काश्तकारोंसे साटे लिखवा लिये, और एक-दो साल नील उपजानेके बाद तावान लेकर उसके बदले नील-सम्बन्धी अधिकारको छोड़ दिया। इस प्रकारकी कार्रवाइयाँ हमें तो बिलकुल औचित्यहीन प्रतीत होती हैं। अपने काश्तकारोंके हकमें बेतिया राजका यह फर्ज है कि वह इस मामलेमें हस्तक्षेप करे। हमारी सिफारिश है कि ऐसे मामलोंमें, कोर्ट ऑफ वार्ड्सको इन संस्थानोंके नाम अस्थायी पट्टोंको तबतक नया नहीं करना चाहिए जबतक कि वे तावानके रूपमें प्राप्त सारी रकम वापस नहीं कर देते।