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परिशिष्ट

भी उन्हीं शर्तोंपर २६ प्रतिशतकी कमी कर दी जाये जिन शर्तोपर मोतीहारी और पीपरामें कमी की गई है।

तावानके आधारपर राहत

११. हमें अब भी उन मामलोंपर विचार करना शेष है जिनमें एकमुश्त रकम लेकर काश्तकारोंको नील-सम्बन्धी दायित्वसे मुक्त कर दिया गया है। मुक्तिके इस तरीकेको हम काश्तकारोंके हितोंके लिए स्पष्ट रूपसे हानिकर समझते हैं। फैक्टरियोंने तावान लेनेकी बातका बचाव दो भिन्न-भिन्न तरीकोंसे किया है। कुछ संस्थान ऐसा दावा नहीं करते कि काश्तकारीकी किसी शर्त अथवा काश्तकारोंके किसी दायित्वके अनुसार उनके लिए नीलका उत्पादन करना जरूरी था। उनका कहना है कि यह बन्धन तो सिर्फ तदर्थ किये गये साटोंके अनुसार ही लागू होता है, और काश्तकारोंने जो रकम चुकाई थीं सो, सम्बन्धित पक्षोंके लिए सन्तोषजनक शर्तोपर उक्त अनुबन्धके समाप्त होनेके एवजमें ही। किन्तु काश्तकारों द्वारा अनुबन्धकी समाप्तिके एवजमें रकमें चुकाये जानेका सिद्धान्त समझमें नहीं आता। जब दोनों पक्ष एक अनुबन्धको समाप्त करना चाहते हैं तब उनमें से एकको कोई बहुत बड़ी रकम क्यों अदा करनी पड़े विशेषकर उस हालतमें जब अनुबन्धको समाप्त करनेका प्रस्ताव रकम प्राप्त करनेवाले पक्षने रखा हो। हमारा खयाल है, किसी भी संस्थानके मामलेमें अदा की जानेवाली रकममें अनुबन्ध चालू रहनेकी अवधिके कम-ज्यादा होनेसे कोई अन्तर नहीं आया। हालाँकि यदि मामला सिर्फ अनुबन्धसे ही सम्बद्ध रहता तो निश्चय ही ऐसा होना चाहिए था। फिर, ऐसे हर मामलेमें, जिसमें तावान लिया गया, सौदेके एक हिस्सेके रूपमें यह वचन दिया गया था कि भविष्यमें न फैक्टरीके मौजूदा मालिक और न ऐसा कोई व्यक्ति ही, जिसके नाम फैक्टरीका स्वामित्व हस्तान्तरित किया जाये, काश्तकारसे नीलका उत्पादन करनेको कहेगा। हमारे विचारसे इस बात में सन्देहकी कोई गुंजाइश नहीं है कि काश्तकारोंने जिस चीजके लिए रकमें अदा की वह चीज थी नील उपजानेके दायित्वसे मुक्ति, और वे मात्र साटोंकी बनी हुई अवधिसे मुक्ति पानेके लिए इतनी बड़ी रकमें अदा नहीं करते।

जिन पुरानी फैक्टरियोंने मुकर्ररी गाँवोंके सम्बन्धमें शरहबेशीका सहारा लिया और अस्थायी पट्टेवाले गाँवोंके सम्बन्धमें तावान लिया, एक दूसरी ही बात कहती हैं। दोनों ही तरहके मामलोंमें उनका दावा यह है कि काश्तकारीकी यह एक शर्त ही थी――यानी जिस शर्तपर काश्तकारने जमीन प्राप्त की थी उसके अनुसार उसपर नील उपजानेका दायित्व था। लेकिन यदि ऐसी कोई फैक्टरी किसी अस्थायी पट्टेवाले गाँवमें लगान बढ़ाती तो पट्टेको अगली बार नया करते समय उस लाभके दसमें नौ हिस्से ऊपरके जमींदारके पास चले जाते। परिणामस्वरूप ऐसी फैक्टरियाँ विचित्र ढंगका दावा पेश करती हैं। उनका कहना है कि काश्तकारोंपर नील पैदा करनेका बन्धन लगाना केवल फैक्टरीका अधिकार था उसके ऊपरके भू-स्वामीका नहीं, और इसलिए काश्तकारीके साथ लगाई गई शर्तको रद [कम्यूट] करने और उसका पूरा लाभ प्राप्त करनेका अधिकार भी फैक्टरीको ही था, तथा इस लाभमें ऊपरका भूस्वामी कोई हिस्सा