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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देख-रेखमें नहीं बोता और अपनी उपजको तोलसे या मूल्यांकनके किसी अन्य तरीकेसे बेचता है। इसपर हम बादके अनुच्छेदमें अधिक विस्तारसे विचार करेंगे।

नीलका मूल्य

५. किसानोंको इस प्रकार पैदा किय गये नीलका जो मूल्य दिया जाता है वह समय-समयपर बदलता रहा है। मालूम हुआ है कि झगड़े-फसादके दिनोंके बाद १८६९ में नीलकी कोठियोंने प्रति एकड़ नीलका दाम ६ रुपये ८ आने से बढ़ाकर ९ रु० कर दिया था और दूसरी बार फिर फसाद होनेपर १८७७ में उसे बढ़ाकर ११ रुपये ५ आने कर दिया था। उसी साल पहले-पहल यह भी साफ-साफ तय किया गया कि जिस जमीनमें नील बोया जायेगा उसका लगान माफ कर दिया जायेगा। पहले यह प्रथा नहीं थी । १८९७में बिहार नील बागान-मालिक संघने अपनी मर्जीसे यह दर बढ़ाकर १२ रुप प्रति एकड़ कर दी। अन्तमें सन् १९१०में श्री गॉर्लेकी जाँचके बाद भाव बढ़ाकर १३ रुपये प्रति एकड़ कर दिया गया और अब भी यही भाव है। यदि नीलकी जमीनके लगानकी माफीको गिनें तो इस समय किसानको लगभग १५ रु० ८ आ० प्रति एकड़का दाम मिलता है। किसानोंकी हमसे यह आम शिकायत रही कि इन दामोंके कारण नीलकी खेतीकी अपेक्षा उन्हें वर्तमान भावोंसे देशी फसलोंसे अधिक लाभ हो सकता है, नीलकी खेती करनेके कारण उन्हें खासी आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। कुछ खास नील उत्पादकोंने यह बात स्वीकार की है और हमारा खयाल है कि किसीका जिससे कोई बड़ा मतभेद भी नहीं है कि नीलसे किसानको देशी फसलोंकी अपेक्षा रुपये के रूपमें प्रत्यक्ष प्रतिफल कम ही मिलता है; किन्तु उससे उसे कुछ प्रत्यक्ष लाभ होनेकी बात जोर देकर कही जाती है। जैसे अदलती-बदलती फसल लेनेके लिए नीलकी खेतीका महत्त्व है और फिर फसलके लिए जुताई शुरू होने से पूर्व किसानको बिना ब्याज पेशगी मिल जाती है जो फसलके आधे मूल्यके बराबर होती है। अन्तमें इस बातपर भी जोर दिया जाता है कि किसानोंको कम लगान पर जो जमीनें मिली हुई हैं उसका सीधा सम्बन्ध नीलकी खेतीसे है और इसलिए उचित भावोंकी बात करते समय इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। नीलकी खेतीकी तिन-कठिया प्रथामें किसानोंकी आर्थिक स्थिति कैसी है इसका हमारे लिए अनुमान लगानेका प्रयत्न करना कठिन है और यह अनावश्यक भी है, क्योंकि हमें विश्वास है कि अनेक कारणोंसे यह प्रथा मूलतः सदोष है और इसलिए बन्द कर दी जानी चाहिए।

नीलकी खेतीकी प्रथाके दोष

६. इस प्रथासे सम्बन्धित ऐसी कई बातें हैं जो हमारी रायमें इससे उत्पन्न निकृष्ट परिणामोंके लिए प्रत्यक्ष रूपसे उत्तरदाई हैं। पहली बात यह है कि किसानको जो दाम दिया जाता है वह नियत होता है और कई सालों तक अपरिवर्तित रहता है। हम जानते हैं कि बिहार नील बागान-मालिक संघ द्वारा नियत किये हुए दाम बहुत ही कम हैं। किन्तु संघकी स्वीकृति मिलते ही वह निर्ख अधिकृत मान लिया जाता है और सब कठिया उसीके अनुसार चलती हैं। पचास बरसोंमें किसानोंको दिये जाने-