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परिशिष्ट

इस क्षेत्रके एक तिहाई भागमें अपनी जमीनमें ये नीलकी कोठीवाले खुद खेती करते थे और दो-तिहाईमें उनके पट्टेदार किसान खेती करते थे । कृत्रिम नीलकी स्पर्धाक कारण नीलकी खेतीका यह रकबा जो १९०७ में ५२,००० एकड़ था, १९१४ में घटकर ८,१०० एकड़ रह गया। किन्तु युद्धकालमें ऊँचे भावोंसे उत्तेजन पाकर यह क्षेत्र १९१६ में फिर बढ़कर २१,९०० एकड़ हो गया। नीलके कोठीदार अपनी मिल्कियतकी या अपने पट्टेकी जिन जमीनोंमें खुद नीलकी खती करते हैं (जिसे सामान्यतः जिरात कारत कहा जाता है) उसकी ओर विशेष ध्यान देनेकी आवश्यकता नहीं है। किन्तु जिस शर्तपर किसान इन कोठीदारोंके लिए अबतक नीलकी खेती करते रहे हैं, उसके कारण अनेक बार झगड़े हुए हैं और यद्यपि हम इन झगड़ोंके इतिहासपर विचार करना आवश्यक नहीं समझते; किन्तु इस प्रथाका कुछ विवरण दिये बिना हम वर्तमान असन्तोषके कारणोंको भलीभाँति स्पष्ट नहीं कर सकते। इसके मुख्य तत्त्व पिछले १०० वर्षों में बदले नहीं जान पड़ते। इस प्रणालीके अन्तर्गत पट्टेदार अपनी जमीनके एक भागमें कोठीदारके लिए नीलकी खेती करना स्वीकार करता है। ऐसा जान पड़ता है कि यह क्षेत्र जिसमें वह यह खेती करता था, कभी बीघेमें पाँच कट्ठे (चौथाई) रहता था; किन्तु १८६७ से पहले ही यह घटाकर चार कट्ठे कर दिया गया था। १८६८ में यह तीन कट्ठे किया गया और इसीसे इस प्रथाका नाम तिन-कठिया हो गया। १९१० में नील बागान-मालिक संघने एक विनियम बनाकर इस क्षेत्रका बीघे पीछे अनुपात दो कट्ठे कर दिया; किन्तु तिन-कठिया नाम इस प्रथासे चिपका ही रहा। जहाँ इस प्रथाके अन्तर्गत नीलकी खेती की जाती है वहाँ जमींदार और किसानके बीच समझौतेकी शर्तें सामान्यतः एक दस्तावेजमें दी जाती हैं जो साटा कहा जाता है। इसमें किसान यह लिखकर देता है कि उसे एक निश्चित रकम पेशगी मिली और वह हर साल एक निश्चित रकबेमें नीलकी खेती करनका वचन देता है। वह चुने हुए खेतोंकी नीलकी बुआईके लिए तैयारी करे और फसलकी निराई और पक जानेपर कटाई अपने खर्चसे करता है; बीज कोठीदार देता है; उसकी बुआई कोठीदार और किसान दोनों करते हैं। खेतसे कोठीतक हर फसलकी ढुलाईका खर्च कोठी देती है। एक बीघेमें उत्पन्न नीलका कितना दाम दिया जाना है, यह साटमें नियत होता है और वह वास्तविक उपजमें कमी या बेशीके साथ कम या ज्यादा नहीं होता। यदि ऐसे कारणोंसे, जिनके लिए किसान जिम्मेदार नहीं होता, फसल मारी जाती है तो उसका दाम केवल आधा दिया जाता है, किन्तु शर्त यह होती है कि किसानको उसी फसलमें दूसरी जिस बोनेके लिए समय रहते नीलके खेतको जोत लेने दिया जाये। जुताईके वक्त शुरूमें किसानको नीलके दामका कुछ हिस्सा बिना ब्याज पेशगी दे दिया जाता है; किन्तु वह प्रायः उसके लगान खाते जमा कर लिया जाता है और नकद नहीं दिया जाता। साटमें एक दण्डात्मक धारा भी होती है जिसमें वह हर्जाना जो किसानको यह करार पूरा न कर सकने, अर्थात् नीलके लिए निर्धारित जमीनमें कोई दूसरी फसल बो देनेपर बागान-मालिकको देना पड़ेगा, निर्धारित कर दिया जाता है।

ऐसा जान पड़ता है कि चम्पारनमें अभी कुछ समय पहले तक ‘खुश्की’ प्रथा नहीं थी जिसके अन्तर्गत किसान कोठीदारके लिए नील बोता तो है; किन्तु उसकी