परिशिष्ट ११
चम्पारन कृषीय जाँच समितिका प्रतिवेदन
अक्तूबर ३, १९१७
अध्याय १
समितिकी रचना और कार्यविधि
समितिकी नियुक्ति और विचार-विषय
चम्पारन कृषिय जाँच समितिकी नियुक्ति बिहार और उड़ीसा सरकारने अपने १० जून, १९१७ के प्रस्ताव सं० १८९०―ग के द्वारा की थी। यह प्रस्ताव यहाँ उद्धृत किया जाता है:
“पिछले पचास सालोंमें विभिन्न अवसरोंपर चम्पारन जिलेमें जमींदारों और किसानोंके सम्बन्धों और नीलकी खेतीसे सम्बन्धित स्थितियोंके कारण खासी परेशानी रही है। जब नीलका उद्योग उन्नत था तब उसकी खेतीकी स्थितियाँ भिन्न थीं। किन्तु जब उसमें गिरावट आई और उसके साथ-साथ अन्नके भाव भी बढ़े तथा परिस्थितियाँ भिन्न हो गईं तो इससे पुनः समन्वय करनेकी आवश्यकता हुई। कुछ इन स्थितियों और कुछ अन्य स्थानीय कारणोंसे, १९०८ में नीलके कुछ संस्थानों में उपद्रव हुए। बंगालकी सरकारने इन उपद्रवोंके कारणोंकी जाँचके लिए श्री गॉर्लेको नियुक्त किया और उनकी रिपोर्ट एवं सिफारिशोंपर सर एडवर्ड बेकरकी अध्यक्षतामें स्थानीय सरकारके अधिकारियों और बिहार बागान-मालिक जमींदार संघके प्रतिनिधियोंकी कुछ बैठकोंमें विचार किया गया। इस विचारके फलस्वरूप नीलकी खेतीकी शर्तें इस प्रकार बदल दी गईं कि उनसे किसानोंकी शिकायतें दूर हो जायें; ये शर्तें बिहार बागान-मालिक संघने स्वीकार कर लीं।
“१९१२ में फिर आन्दोलन उठा; किन्तु उसका प्रधान कारण नीलकी खेतीकी शर्तें नहीं, नीलके कुछ कारखानोंकी कार्रवाई थी। ये कारखाने नील बनाना कम कर रहे थे और अस्थायी पट्टेके गाँवोंमें अपने पट्टेदारोंसे नीलकी खेतीके बजाय इकट्ठा रुपया देने या स्थायी पट्टेके गाँवोंमें लगान बढ़ा देनेके सम्बन्धमें करार करा रहे थे। इस सम्बन्धमें स्थानीय अधिकारियों और सरकारको बहुतसी अर्जियाँ दी गई। इसके साथ ही बेतिया सब-डिवीजनके उत्तरी गाँवोंमें, जहाँ नीलकी खेती कभी की ही नहीं गई थी, अर्जियाँ दी गईं जिनमें भारतीय और यूरोपीय ठेकेदारों द्वारा अबवाब लगाये जाने या गैरकानूनी रूपसे लगान बढ़ाये जानेकी शिकायतें की गई थीं। इन सब दरखास्तोंमें लगान और पट्टेदारीकी शर्तोंका सवाल खास तौरसे उठाया गया था और चूँकि जिलेमें नया बन्दोबस्त, जमींदारों और किसानोंके वर्तमान सम्बन्धोंकी विस्तृत जाँच करके आरम्भ किया जानेवाला था, इसलिए यह ठीक समझा गया कि इन दरखास्तों