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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कोई गुंडा हमारी बेटीपर आक्रमण कर रहा है। श्री गांधी कहते हैं कि उनकी अहिंसाकी कल्पनाके अनुसार हमारी उस बेटीकी सम्मान रक्षाका एकमात्र उपाय यही है कि हम अपनी बेटी और उस आक्रमणकारीके बीचमें आ खड़े हों। किन्तु यदि आक्रमणकारी हमें गिरा दे और अपने जघन्य संकल्पको पूरा करे तब हमारी बेटीका क्या हाल होगा। श्री गांधीका कहना है कि गुंडेका मुकाबला अपनी शक्तिसे करके उसे रोकनेके लिए जितनी मानसिक और शारीरिक वीरताकी आवश्यकता होती है उसकी अपेक्षा शान्त खड़े रहने और उसे अपनी घृणित मनमानी करने देनेके लिए अधिक मानसिक और शारीरिक वीरताकी आवश्यकता होती है। श्री गांधीके प्रति भारी सम्मान प्रकट करते हुए मैं कहना चाहता हूँ कि इसका कोई अर्थ नहीं है। मेरे मनमें श्री गांधीके व्यक्तित्वके प्रति अत्यधिक सम्मानका भाव है। मैं जिन लोगोंकी पूजा करता हूँ उनमें वे भी आते हैं। मुझे उनकी सचाईमें कोई सन्देह नहीं है। मैं उनके हेतुओंपर भी शंका नहीं करता। किन्तु उन्होंने जो अनिष्टकारी मत स्थिर किया है उसका तीव्र विरोध करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। इस सम्बन्धमें गांधी-जैसे व्यक्तिको भी भारतके नवयुवकोंके मस्तिष्क विषाक्त करनेकी छूट नहीं दी जानी चाहिए। जातीय शक्तिके स्रोतोंको अपवित्र करनेकी स्वतन्त्रता किसीको नहीं होनी चाहिए। इसका प्रचार ईसा तो दूर, बुद्धने भी नहीं किया था। मैं समझता हूँ कि इस हदतक तो जैन भी नहीं जायेंगे। क्यों? इन स्थितियों में तो सम्मानपूर्ण जीवन ही असम्भव हो जायेगा। जिस मनुष्यका ऐसा मत हो वह किसीको मनचाही करनेसे दृढतापूर्वक नहीं रोक सकता। तब श्री गांधीने दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंके निष्कासनकी गोरोंकी पोषित नीतिके विरुद्ध विद्रोहका झंडा ऊँचा करके उनकी भावनाओंको ठेस क्यों पहुँचाई? युक्तियुक्त बात तो यह होती कि ज्यों ही दक्षिण आफ्रिकी सरकारने उनको निकालनेकी इच्छा प्रकट की थी त्यों ही वे अपना बोरिया-बिस्तर लेकर उस देशसे चले आते और अपने देशवासियोंको भी वैसा ही करनकी सलाह देते, क्योंकि ऐसी स्थितियोंमें किसी भी प्रकारका प्रतिरोध करनेसे हिंसा होती; आखिर शारीरिक हिंसा मानसिक हिंसासे ही तो उद्भूत होती है। यदि किसी चोर या लुटेरे या किसी शत्रुको मार भगानेका विचार करना पाप है तो उसका शक्तिसे प्रतिरोध करना उससे भी बड़ा पाप है। यह बात देखनेमें ऐसी बेहूदी है कि मुझे श्री गांधीके भाषणकी इस रिपोर्टकी सत्यतापर सन्देह होने लगता है। किन्तु अखबारोंमें इस भाषणकी खुली आलोचना की जा रही है और श्री गांधीने इसका कोई खण्डन नहीं किया है। कुछ भी हो, मैं यह अनुभव करता हूँ कि जबतक इस भाषणका खण्डन या स्पष्टीकरण नहीं किया जाता तबतक मैं चुप नहीं बैठ सकता। और इस मान्यताको असन्दिग्ध पुनीत सत्यके रूपमें भारतके किसी भी युवक द्वारा अनुगमन करनेके लिए फैलने नहीं दे सकता। श्री गांधी एक काल्पनिक पूर्ण विश्वकी रचना करना चाहते हैं। निस्सन्देह वे ऐसा करनेके लिए स्वतन्त्र हैं और उन्हें दूसरोंको भी वैसा करनेके लिए कहनेकी स्वतन्त्रता है। किन्तु मैं भी उनकी भूल बताना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ।

[अंग्रेजीसे]
मॉडर्न रिव्यू, जुलाई १९१६