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परिशिष्ट

सम्मानित नेता थे। वे एक अति ऊँचे दर्जेके श्रमण थे। मैंने अपने जीवनमें उन सरीखे व्यक्ति कम ही देखे हैं। वे अपने सिद्धान्तोंका पूर्ण पालन करते थे और तपश्चर्या एवं वासनाओं और तृष्णाके दमनमें अग्रणी थे। किन्तु नैतिकताके ऊँचे मापदण्डके अनुसार उनका जीवन व्यर्थ और अस्वाभाविक था; मुझे उनसे प्रेम था और में उनका आदर करता था, मैं उनके सिद्धान्तोंपर नहीं चल सका। उन्होंने भी मुझे उनपर चलानेकी चिन्ता नहीं की। उनके भाई अर्थात् मेरे सगे पितामह भी अहिंसामें, किन्तु विकृत अहिंसामें――विश्वास करते थे, जिसमें उनके लेखे कैसी भी स्थिति हो, किसी भी प्राणीके प्राण लेनेका तो निषेध है; किन्तु अपने व्यापार और व्यवसायमें सब तरह की धोखा-धड़ी उचित ही नहीं, बल्कि अच्छी है। उनके व्यवसाय सम्बन्धी नीति-नियमोंके अनुसार यह सब विहित था। मैंने जैन धर्मके अनेक अनुयायी देखे हैं जो व्यवहारमें बच्चों और विधवाओंसे उनके मुँहका कौर भी निकाल लेंगे; किन्तु जुँओं, चिड़ियों या अन्य जानवरोंके मारे जानेका खतरा हो तो उनकी रक्षा करनेमें हजारों रुपये खर्च देंगे। मेरे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि भारतके जैन शेष हिन्दुओंकी अपेक्षा अधिक अनीतिमय आचरण करते हैं। मैं यह भी कहना नहीं चाहता कि इस प्रकारका अनीतिमय आचरण अहिंसाका परिणाम है। ऐसा निराधार आरोप करनेकी तो मैं बात भी नहीं सोच सकता। जैनोंकी एक विशेष जीवन-पद्धति है। उसपर विचार करें तो उनका समाज एक बड़ा समाज है। जैन दानी हैं, आतिथ्यकारी हैं, चतुर एवं दक्ष व्यापारी हैं। हिन्दुओंकी कुछ अन्य जातियोंमें भी ये गुण हैं। तथापि में यह कहना चाहता हूँ कि अन्य जातियोंसे उनकी अवस्था अहिंसाको चरम रूपमें पालन करनेके कारण कदापि अच्छी नहीं हुई है और न उसके कारण उन्हें ऊँचा नैतिक स्थान ही प्राप्त हुआ है। असल बात यह है कि गुंडागर्दी और शक्तिके अन्य प्रदर्शनोंके कारण सबसे अधिक हानि इन्हीं लोगोंकी होती है, क्योंकि अपनी परम्परागत भीरुता और शक्ति प्रयोगके प्रति घृणाके कारण अन्य लोगोंकी अपेक्षा ये अधिक असहाय होते हैं। ये न तो अपना बचाव कर सकते हैं और न अपने प्रियजनों और निकट-सम्बन्धियोंकी ही प्रतिष्ठाकी रक्षा कर सकते हैं। यूरोप ‘शक्तिके ईश्वरीय अधिकार’ का आधुनिक अवतार है। वहाँ टॉल-स्टॉयका जन्म होना शुभ है। किन्तु भारतकी स्थिति भिन्न है। हम भारतीय, शक्ति और हिंसाकी हिमायत करते हैं तो, अत्याचार करने, दूसरे लोगोंके अधिकार छीनने या आक्रमण करनेके निमित्त नहीं। मेरा विश्वास है कि भारतमें यह स्थिति कभी नहीं आयेगी। किन्तु यदि हमें यह सिखाया जाये कि आत्मरक्षाके लिए या अपने सम्मानकी या अपनी पत्नियों, भगिनियों, पुत्रियों और माताओंके सम्मानकी रक्षाके निमित्त भी उचित शक्तिका प्रयोग करना पाप है, तो यहाँ इसकी गुंजाइश नहीं है। ऐसा शिक्षण अस्वाभाविक और हानिकर है। हम एक वैध उद्देश्यको प्राप्त करनेके लिए कानूनके विरुद्ध शक्तिके प्रयोगकी निन्दा करते हैं; किन्तु यदि एक बड़ा और सम्मानित व्यक्ति हमारे नवयुवकोंको यह कहता हो कि हम अपने संरक्षित जनोंकी सम्मान-रक्षाके लिए अपने आपको उन लोगोंके हाथोंमें सौंप दें जो उनकी पवित्रताको नष्ट कर रहे हों और साथ ही यह भी कहता हो कि हमारा यह कार्य प्रहार करनेकी अपेक्षा कहीं अधिक शारीरिक और मानसिक वीरताका सूचक होगा, तो हम चुप नहीं बैठे रह सकते। मान लीजिए कि