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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अधःपतन हुआ। वे यह भूल गये कि शौर्य भी उतना ही अच्छा गुण है जितना अहिंसा। वास्तवमें शौर्य और अहिंसामें किसी तरहकी विसंगति नहीं है, बशर्ते कि अहिंसाका ठीक उपयोग किया जाये; उन्होंने इस तथ्यकी उपेक्षा की कि व्यक्तिगत और जातीय हितोंकी रक्षाके लिए यह कर्त्तव्य हो जाता है कि दुर्बलोंकी शक्तिमानोंसे रक्षा की जाये और आक्रमणकारियों, अनधिकारियों, कामी दुष्टों, स्त्रियोंका सतीत्व भंग करनेवाले कुख्यात लोगों, गुंडों और ठगोंको अन्याय करने और हानि पहुँचानेसे रोका जाये। वे यह तथ्य भूल गये कि सात्विक क्रोध और उसके परिणामोंके भयसे पाप-प्रवृत्त लोगोंकी आत्माओंका निर्दोष लोगोंको हानि पहुँचाने, पवित्रताको भंग करने और अन्य लोगोंके उचित अधिकार छीननेसे विरत रहना, मानव जातिके लिए आवश्यक है। उन्हें इस सत्यकी महत्ता और पुनीतता दिखाई नहीं दी कि जो बुराई या अत्याचार और उत्पीड़नका बलात् प्रभुत्व कायम होने देता है या उसे सहन करता है वह एक प्रकारसे उसको उकसाता या उत्साहित करता है और इसलिए अंशत: बुराई करनेवाले व्यक्तिके उत्कर्ष और शक्तिको बढ़ानेमें सहयोगी बनता है।

अति अहिंसाका और अहिंसाका अनुचित उपयोग ऐसी सड़ाँघ है जिसका विष समस्त शरीरमें फैल जाता है। यह संडाँध मनुष्यकी शक्तियोंको क्षीण कर देती है और स्त्री-पुरुषोंको ऐसे अर्ध-विक्षिप्त, उन्मादी और दुर्बल प्राणियोंमें परिवर्तित कर देती है जो ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकते जिसके लिए मनुष्यको उदात्त उद्देश्य रखने और उदात्त गुणोंका आश्रय लेनेकी आवश्यकता होती है। इससे लोग सनकी और कायर हो जाते हैं। जैन धर्मके संस्थापक संत पुरुष थे जिन्होंने जीवनमें त्याग और तपस्याका व्रत लिया था। उनके अनुयायी जैन साधु अत्यन्त संत स्वभावके लोग हैं जिन्होंने इन्द्रियों और मनके विषयों और विकारोंको जीतनेमें अधिकसे-अधिक सफलता पाई है। टॉल्स्टॉय जैसी अहिंसासे भारतके लोग तीन हजार वर्षोंसे परिचित हैं और उसका आचरण करते हैं, भूमण्डलमें ऐसा कोई देश नहीं है जिसमें इतने अहिंसावादी हों और उनका अहिंसामें इतना गहरा विश्वास हो। भारतमें ये लोग शताब्दियोंसे रहते हैं। फिर भी संसार-भरमें ऐसा कोई अन्य देश नहीं है जो इतना पद-दलित और मानवीय गुणोंसे इतना वियुक्त हो जितना भारत इस समय है या पिछले पन्द्रह सौ वर्षोंसे रहा है। कुछ लोग कह सकते हैं कि यह अध:पतन अहिंसाके कारण नहीं हुआ; बल्कि अन्य सद्गुणोंका त्याग करनेसे हुआ है। किन्तु मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि इसका कम से कम एक कारण इस सत्यकी विकृति है जिसके परिणामस्वरूप भारतके लोगोंने सम्मान, शौर्य और सद्गुणोंका मार्ग त्याग दिया है। सबसे बुरी बात तो यह है कि जो लोग इस सिद्धान्तमें अपना पूर्ण विश्वास होनेका दावा करते हैं उनके अपने आचरणसे ही यह सिद्ध हो जाता है कि एक ऐसे सत्यके अनुचित उपयोगसे जीवनमें दाम्भिकता, निर्वीर्यता और निर्दयता आये बिना नहीं रहती। मेरा जन्म एक जैन परिवारमें हुआ। मेरे पितामहका अहिंसा में सम्पूर्ण विश्वास था। उन्हें साँपसे काटा जाना पसन्द होता था; किन्तु उसे मारना नहीं। वे कीड़ों-मकोड़ों तकको हानि नहीं पहुँचाते थे। वे घंटों धार्मिक कृत्योंमें लगे रहते। बाह्यतः वे बहुत ही धर्म-परायण व्यक्ति थे और उनका स्थान ऊँचा था। उनके एक भाई साधु थे। वे एक धार्मिक आचार्य और अपने संप्रदाय के