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फरवरी १७, १९१७
उक्त वक्तव्य[१] हमें "मद्रास मेल" से मिला है। श्री गांधीने टेलीफोनसे पूछा था कि क्या मैं उनका वक्तव्य छाप सकूँगी। मैंने ‘हाँ’ कहा। मेरा खयाल है कि “मद्रास मेल” द्वारा भेजा गया यह वक्तव्य ही वह वक्तव्य है।
मैं खेदपूर्वक वक्तव्यके पहले अनुच्छेदका खण्डन करती हूँ। खण्डन करना आवश्यक है। मेरी समझमें नहीं आता कि यदि मैं श्री गांधीके “ठीक पीछे बैठी थी” तो श्री गांधीने मुझे “महाराजा दरभंगासे दूर हुए राजाओंसे कानाफूसी करते हुए” कैसे देखा! मेरी समझमें यह भी नहीं आता कि राजाओंने मेरी कानाफूसी कैसे सुनी। एक राजा साहब मेरी बगलमें जरूर बैठे थे मगर वे तो सब लोगोंके उठ जाने पर ही उठे थे। मैं राजाओंके साथ नहीं गई, बल्कि अपने गिर्द बैठे हुए मित्रोंके साथ बैठी रही। और श्री गांधी तो यह कहते हैं कि मैं उनसे विचार-विमर्श कर रही थी; साथ ही वे यह भी कहते हैं कि मैं उठकर राजाओंके साथ चली गई थी। मैं सभा भंग होनेके बाद कुछ मिनट तक वहाँसे नहीं गई और उसके बाद भी उस रास्तेसे नहीं गई जिससे राजा लोग गये थे। बल्कि उस रास्तेसे गई जो मंचसे मेरे घरकी ओर जाता था।
मेरे पास श्री गांधीके भाषणकी रिपोर्ट नहीं है। किन्तु श्री गांधी चाहते हैं कि मैं उन वाक्योंका उल्लेख करूँ जिनके कारण मैंने हस्तक्षेपकी आवश्यकता समझी। मेरा उत्तर यह है: मैंने समझा कि इस प्रकारकी अराजनैतिक सभामें, जिसमें राजा लोग और अन्य कई ऐसे लोग उपस्थित हैं जिन्हें सरकारकी अप्रसन्नतासे हानि पहुँच सकती है, श्री गांधीको अंग्रेजोंके भारतसे बोरिया-बसना बांधकर जानेकी सम्भावनाका उल्लेख नहीं करना था; यह बात उन्होंने दो बार कही। उन्हें यह भी नहीं कहना था कि यदि.वे स्वयं भारतीयोंको स्वशासनके योग्य समझें तो वे अपने हजारों देशवासियोंके साथ अंग्रेजोंकी तोपोंके मुँहके सामने जाने और वीरतापूर्वक अपने प्राण देनेके लिए भी तैयार हैं; किन्तु वे अभी भारतीयोंको इस योग्य नहीं समझते। उनका स्पष्ट रूपसे यह कहना भी अबुद्धिमत्तापूर्ण था कि “मैं अराजकतावादी हूँ।” और उन्होंने अपने ऐसा कहनेका आशय नहीं समझाया। उन्हें यह नहीं कहना था कि बमबाजीके कारण बंग-भंग रद हो गया। उन्हें बम फेंकनेवाले युवकोंकी प्रशंसा भी नहीं करनी थी। मैं बहुत अच्छीतरह जानती हूँ कि खुफिया रिपोर्टोंमें ये वक्तव्य किस प्रकार दिये जायेंगे। मैं ऐसी रिपोटोंसे हानि उठा चुकी हूँ और इसीलिए मैंने अध्यक्षसे उक्त अनुरोध किया था। यदि सभाके संयोजक स्वयं श्री गांधी होते तो वे क्या कहते हैं, यह सोचना उन्हींका काम किसी दूसरेको इससे कोई सरोकार न होता। परन्तु स्थिति यह थी कि आमन्त्रित सज्जनोंको बुलानेकी जिम्मेवारी विश्वविद्यालय-समितिकी थी और उस समितिमें मैं भी शामिल हूँ। मेरे चारों ओर लोग शिकायतके स्वरमें बोल रहे थे शायद था,
- ↑ १. देखिए “श्रीमती बेर्सेटको उत्तर”, १७-२-१९१६ से पूर्व; प्रतीत होता है कि यह भी मद्रास मेलमें प्रकाशित किया गया था।