४२०. पत्र: एस्थर फैरिंगको
रांची,
अक्तूबर ४, १९१७
मैं तुम्हें जितनी जल्दी-जल्दी लिखना चाहता था उतनी जल्दी-जल्दी नहीं लिख सका हूँ। मैं अभी-अभी अपने जीवनके एक अत्यन्त समृद्ध अनुभवसे गुजरा हूँ और उसमें मैं तुम्हें शरीक करना चाहता हूँ। अपनी आशाके विपरीत कामके भारी बोझके फलस्वरूप मैं मलेरियासे बीमार पड़ गया――सो भी ठीक ऐसे वक्तपर जब कि बीमार पड़ना मुझे पुसा नहीं सकता था। उस समय मुझे रोज कमेटीके कामके लिए हाजिर होना पड़ता था। इलाजके लिए जो दवा लेनेकी सलाह दी गई, वह थी कुनैन। मैं उसे लेना नहीं चाहता था, लेता नहीं था। मेरी श्रद्धाने मेरी रक्षा की। एक भी बैठक में चूका नहीं और कल हम सबने रिपोर्ट[१] स्वीकार करते हुए उसपर अपनी सही कर दी। मेरा खयाल है कि बीमारी भी अब अन्तिम रूपसे चली गई है। इस अनुभवके बारेमें और विस्तारसे लिखनेके लिए मेरे पास समय नहीं है। लेकिन आगे जब हमें मिलनेका अवसर आये तो तुम मुझसे उसका वर्णन विस्तारसे करनेके लिए कहना। रेल-गाड़ियोंकी हालतपर समाचार-पत्रोंको भेजा गया मेरा पत्र तो तुमने पढ़ ही लिया होगा।[२] अगर वह तुम्हारी नजरसे न गुजरा हो तो तुम आश्रमको उसकी एक नकल तुम्हारे पास भेजनेके लिए लिखना।
तुम मद्रास नहीं आईं, यह तुमने बिलकुल ठीक किया। हमारे स्नेहमें धैर्य और विनयपूर्ण संकोच होना चाहिए। अपने प्रेममें प्रदर्शनशील तो वे ही हो सकते हैं जिनके पास पैसा है और जिन्हें अवकाशका अभाव नहीं है। जैसा कि स्वाभाविक है, प्रेम प्रकट करनेका हमारा तरीका उनसे भिन्न और बेहतर है। सच्चा प्रेम अपनेको बाहर तो तभी प्रकट करता है जब उसकी अनिवार्य आवश्यकता हो; वह इस बीच मूक रहकर दिन-प्रतिदिन और निरन्तर वृद्धिंगत होता रहता है। मोतीहारीमें ७ से १३ तक हूँ। उसके बाद अहमदाबाद।
तुम्हारा,
बापू
माई डियर चाइल्ड