लिए है। उसमें इतने यात्रियोंके लिए केवल बैठनेकी गुंजाइश हो सकती थी। उस डिब्बेमें सोनेकी बेंचें नहीं थीं कि यात्री जरा भी आरामसे लेट सकें। मद्रास पहुँचनेसे पहले इस गाड़ीमें दो रातें बितानी थीं। पूना पहुँचनेसे पहले हमारे डिब्बेमें २२ से अधिक यात्री नहीं सवार हुए; और इसका कारण यह था कि गाड़ीमें जो लोग अपेक्षाकृत अधिक ढीठ थे वे दूसरे यात्रियोंको उसमें घुसनेसे बलपूर्वक रोकते थे। केवल दो-तीन आग्रही यात्रियोंको छोड़कर बाकी सबको बराबर बैठे-बैठे ही सोना पड़ा। रायचूर पहुँचने के उपरान्त भीड़को रोकना असम्भव हो गया। यात्रियोंके रेले-पर-रेले आ रहे थे और उन्हें बाहर ही बाहर रोक रखना लड़ने-भिड़नेवालोंकी भी शक्तिके वाहर था। यदि गार्ड या रेलवेके दूसरे कर्मचारी आते थे तो वे और अधिक यात्रियोंको गाड़ीमें ठूँसकर चले जाते थे।
एक उद्धृत मेमन व्यापारीने यात्रियोंको अचारकी तरह ऐसे टूँस-ठूँसकर भरनेका विरोध किया। उसने कहा कि रेलमें यह उसकी पाँचवीं रात है; किन्तु इसका कुछ भी परिणाम न हुआ। गार्डने उसे अपमानित किया और कहा कि आखिरी स्टेशनपर रेलवेके प्रबन्धकर्ताओंसे उसकी शिकायत की जायेगी। उस रात उस गाड़ीमें अक्सर ३५ यात्री रहे। कुछ लोग फर्शपर धूलमें पड़े रहे और कुछको खड़ा रहना पड़ा। एक बार कुछ वृद्ध यात्रियोंके हस्तक्षेपसे दो पक्षोंमें मारपीट होते-होते रह गई। ये वृद्ध यात्री नहीं चाहते थे कि मिजाजकी गरमा-गरमी दिखाकर कष्टमें और वृद्धि की जाये।
रास्ते में यात्रियोंको चायकी जगह रंगदार पानी मिला जिसमें मैली चीनी और सफेद रंगका द्रव, जिसे लोग भ्रमसे दूध कहते थे, मिला हुआ था। इससे उस पानीका रंग मटमैला हो जाता था। मैं केवल उसकी रंगतके बारेमें कह सकता हूँ, किन्तु स्वादके बारेमें यात्री साक्षी हैं।
सारे सफरमें डिब्बा एक बार भी झाड़ा या पोंछा नहीं गया। परिणाम-स्वरूप जब कोई फर्शपर चलता था या यों कहिए कि फर्शपर बैठे हुए यात्रियोंके बीचसे निकलता था तब उसे धूलमें होकर निकलना पड़ता था।
डिब्बेका पाखाना सारे सफरमें एक बार भी साफ नहीं किया गया और उसकी.टंकीमें पानी नहीं था।
यात्रियोंके लिए [स्टेशनोंपर] खाने-पीनेकी जो चीजें बिक रही थीं वे गन्दी दिखाई देती थीं तथा उनको बेचनेवालोंके हाथ तो और भी अधिक गन्दे थे। जिन बरतनोंमें वे चीजें रखी होती थीं वे भी गन्दे होते थे और जिन तराजुओंसे वे तोली जाती थीं उनके पलड़े भी गन्दे ही होते थे। खाने-पीनेकी उन चीजोंका स्वाद पहले ही लाखों मक्खियाँ चख चुकी थीं। जिन लोगोंने खानेकी ये बढ़िया चीजें खरीदीं थीं उनसे मैंने उनके सम्बन्धमें उनकी सम्मति पूछी। बहुतसे लोगोंने उनकी किस्मके सम्बन्धमें जो कहना चाहिए था कहा; लेकिन सभीने यह कहकर सन्तोष कर लिया कि इस सम्बन्धमें वे निरुपाय हैं और जो-कुछ मिल जाता है वही उन्हें लेना पड़ता है।
स्टेशनपर पहुँचकर मैंने देखा कि गाड़ीवाला जितना किराया माँगता है उतना किराया लिये बिना मुझे नहीं ले जायेगा। मैंने नम्रतासे इसका विरोध किया और