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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शिक्षा मनुष्योंको स्वतन्त्र धन्धा करनेके अयोग्य बना देती है; इसके साथ ही उन्हें बुनाईके काममें, जो बैरिस्टरी या डॉक्टरीकी तरह ही प्रतिष्ठित धन्धा है, प्रवृत्त करना और तीसरे जिन जुलाहोंने अपना धन्धा छोड़ दिया है उन्हें फिर उसमें लगाना। मैं अपने प्रयोगके पहले दोनों अंगोंके विषयमें कोई बात कहकर अपने श्रोताओंको परेशान नहीं करना चाहता। लेकिन तीसरे अंशके सम्बन्धमें मुझे कुछ वाक्य कहनेकी अनुमति मिलनी चाहिए; क्योंकि प्रस्तुत विषयके साथ उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। अभी केवल छः महीने हुए मैंने उसे हाथमें लिया है। पाँच परिवारोंने, जो पहले उस धन्धेको छोड़ चुके थे, उसे फिर ग्रहण कर लिया है और उनका काम अच्छी तरह चल रहा है। उन्हें जितने सूतकी आवश्यकता होती है उतना सूत आश्रम उनके घर पहुँचा देता है; और आश्रमके स्वयंसेवक ही उनके घर जाकर उनका बुना कपड़ा ले आते हैं और बाजार-भावसे उसका नकद दाम दे आते हैं। आश्रमको केवल उतने रुपयेके ब्याजका ही घाटा होता है जितना वह सूत खरीदने के लिए कर्ज देता है। उसे अभी तक कोई हानि नहीं हुई है और वह कर्जकी न्यूनतम रकम निश्चित करके उस हानिको सीमित कर सका है। इसके बाद और जो कुछ लेनदेन होता है वह सब नगद होता है। जो कपड़ा हमें मिलता है वह तुरन्त ही बिक जाता है। इसलिए इस व्यवहारमें ब्याजका जो घाटा होता है वह नगण्य है। मैं चाहता हूँ कि श्रोता लोग इस बातका खूब ध्यान रखें कि आदिसे अन्त तक इसका स्वरूप शुद्ध नैतिक है। आश्रमका अस्तित्व उस सहायतापर निर्भर है जो उसे मित्रोंसे मिलती है। इसलिए ब्याज लेना उचित नहीं हो सकता। जुलाहोपर उसका बोझ नहीं लादा जा सकता। पूरे परिवार, जो पहले छिन्न-भिन्न हो रहे थे, अब फिर एकत्र हो गये हैं। ऋणका उपयोग पहलेसे ही तय होता है। और हम बिचौलियोंके रूपमें इनके परिवारोंमें प्रवेश करनेका अधिकार पाते हैं; इससे मुझे आशा है उनकी और हमारी स्थिति सुधरेगी। बिना अपने आपको उन्नत किये हम उन्हें उन्नत कर ही नहीं सकते। यह अन्तिम सम्बन्ध अभी बन नहीं पाया है, पर हम आशा करते हैं कि शीघ्र ही इन परिवारोंकी शिक्षाका काम भी हम अपने हाथ में ले लेंगे और जबतक सभी बातों में हम उनके साथ सम्बन्ध न स्थापित कर लेंगे तबतक हम लोग सन्तुष्ट न होंगे। हमारा यह स्वप्न कोरी कल्पना नहीं है। यदि ईश्वरने चाहा तो यह स्वप्न किसी दिन साकार हो जायेगा। अपने छोटे-से प्रयोगका वर्णन बहुत विस्तारसे करनेका साहस मैंने इसलिए किया है कि मैं अन्य उदाहरण देकर यह बतला दूँ कि सहकारितासे मेरा तात्पर्य क्या है जिससे अन्य लोग उसका अनुकरण कर सकें। हमारे सामने आदर्श स्पष्ट होना चाहिए। सम्भव है कि उस आदर्शको प्राप्त करने में हम विफल रहे हों, परन्तु उसकी प्राप्तिका उद्योग हमें कभी छोड़ना नहीं चाहिए। उस दशामें हमें उन “लुच्चोंके सहकार” का भय न रह जायेगा जिसका डर रस्किनको था; और वह उचित ही था।

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ६४१२) की फोटो-नकलसे। तथा इंडियन रिव्यू, अक्तूबर, १९१७