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सहकरिताका नैतिक आधार
उन्होंने कहा: उस देशको केवल दो ही शक्तियोंने उन्नत किया है-एक स्कॉटिश चर्चने और दूसरे स्कॉटिश बैंकोंने। चर्चसे तो मनुष्य तैयार होते थे और बैंकोंसे धन, जिससे लोग जीवनमें प्रतिष्ठित होते थे...। चर्च राष्ट्रको ईश्वरसे भय करना सिखाता था; और यही बुद्धिमत्ताका मूल है। चर्चके देहाती स्कूलोंमें लड़कोंने यह सीखा कि मानव-जीवनका मुख्य उद्देश्य ईश्वरका गुणगान करना और सदा उसकी भक्ति करना है। मनुष्योंको ईश्वरमें तथा अपने-आपमें विश्वास करनेकी शिक्षा दी गई और इस प्रकार जिस विश्वसनीय चरित्रका निर्माण हुआ उसकी नींवपर स्कॉटिश बैंक प्रणालीकी स्थापना की गई।

इसके उपरान्त सर डैनियलने यह बताया कि इसप्रकार चरित्रका जो गठन हुआ उसकी नींवपर स्कॉटिश बैंकोंकी अद्भुत प्रणालीका निर्माण किया जा सका है। यहाँतक तो सर डैनियलके मतसे पूरी-पूरी सहमति हो सकती है; क्योंकि ‘बिना सदाचारके सहकारिता नहीं हो सकती’, यह सिद्धान्त बिलकुल ठीक है। किन्तु वे हमें इससे बहुत आगे ले जाना चाहते हैं। सहकारिताके गुणगान वे इस प्रकार करते हैं:

भारतके भविष्यके सम्बन्धमें आप जैसे चाहें वैसे दिवा स्वप्न देखें, पर यह बात कभी न भूलें कि भारतको एक सूत्रमें पिरोना है और इस प्रकार उसे संसार में अपना उचित स्थान प्राप्त करनेके योग्य बनाना है; इसीलिए ब्रिटिश सरकार आई है; और सरकार के हाथमें भारतको एक करनेका जो रास्ता है वह सहकारिता आन्दोलन है।

इस समय भारतवर्ष जितनी तरहकी बुराइयोंसे पीड़ित हैं उन सबको दूर करनेका उनकी सम्मतिमें केवल यही एक रामबाण उपाय है। यदि उसका विस्तृत अर्थ लिया जाये तो एक दशामें, जिसका यहाँ उल्लेख करनेकी आवश्यकता नहीं है यह दावा ठीक हो सकता है; लेकिन सर डैनियलने इसका जो संकुचित अर्थ लिया है उसे देखते हुए मैं कह सकता हूँ कि यह एक भ्रान्त मनुष्यकी अत्युक्ति है। उनके इस अन्तिम कथनपर ध्यान दीजिए:

ऋण, जो साख और विश्वासका ही दूसरा नाम है, अधिकाधिक रूपमें संसार का आर्थिक बल बनता जा रहा है और इसी कागजी गोलीके बलपर भारतको विजय और शांति प्राप्त होगी। क्योंकि इस कागजी गोलीपर उस विश्वासकी छाप है जो बड़े-बड़े पहाड़ोंको हिला सकता है।

स्पष्ट ही यह विचार भ्रान्ति है। जो ऋण आजकल संसारका आर्थिक बल बनता जा रहा है उसका कोई नैतिक आधार नहीं है और वह साख या विश्वासका पर्याय नहीं है। साख और विश्वास तो शुद्ध नैतिक गुण हैं। दक्षिण आफ्रिकाके बैंकोंसे लेनदेन करनेवाले सैकड़ों मनुष्योंने अपने बीस वर्षके अनुभवके बाद जो विचार मुझे बार-बार सुनाये उससे मेरे मनमें यह विचार दृढ़ हो गया है कि जो मनुष्य जितना बड़ा लुच्चा होता है, बैंकोंमें उसकी साख उतनी ही अधिक होती है। बैंक उन लोगोंके आचरणकी खोज-बीन नहीं करते; वे केवल इस बातसे सन्तुष्ट हो जाते हैं कि वे