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४०४. पत्र: सत्यानन्द बोसको[१]

[सितम्बर १६, १९१७ के पूर्व]

प्रिय सत्यानन्द बाबू,

आपने जिस पत्र में निष्क्रिय प्रतिरोधके सम्बन्धमें पूछताछ की है वह श्री पोलकने मेरे पास भेजा है। मुझे आपके प्रश्नोंका अत्यन्त संक्षिप्त उत्तर देनेकी ही फुर्सत है। मेरी कल्पनाके अनुसार नि० प्र० आत्मबल है और वह मुख्यत: धार्मिक सिद्धान्त है। अतः उसके क्षेत्र के अन्तर्गत हर तरहका अन्याय आ जाता है। यह बल उतना ही पुराना है जितना यह संसार। प्रह्लाद, डैनियल, ईसा, मीराबाई और अन्य ऐसे ही लोगोंके चरित्रपर विचार कीजिए जिनके जीवनमें मार्गदर्शक सिद्धान्त धर्म रहा है। दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंने न्यूनाधिक इसी बलका प्रयोग किया था और उन्होंने जिस हदतक अन्य बलोंको छोड़कर इस बलका उपयोग किया उसी हदतक उन्हें सफलता भी मिली।

आपका दूसरा प्रश्न है, यह विचार पहले किसके दिमागमें आया। मैंने इन शब्दोंका जो अर्थ किया है उसे देखते हुए, इस प्रश्नका उत्तर देना आवश्यक नहीं जान पड़ता। किन्तु यह कहा जा सकता है कि जहाँतक राजनीतिक मंचसे इसका प्रयोग करनेका सम्बन्ध है; यह विचार मुझसे ही उद्भूत हुआ है। मुझे इसकी कोई जानकारी न थी; किन्तु टॉल्स्टॉयने इसकी ओर मेरा ध्यान खींचा था।

ब्रिटिश लोकसभा में पास किये गये शिक्षा सम्बन्धी विधेयकपर विवाद और डॉ० क्लिफर्ड[२] एवं अन्य लोगों द्वारा किये गये निष्क्रिय प्रतिरोधके अवसरपर श्री विंस्टन चर्चिलने[३] कहा था कि नि० प्र० ब्रिटिश संविधानके अनुसार पूर्णतः वैध है। इसी प्रकारकी

बात जनरल स्मट्सने हमारे निष्क्रिय प्रतिरोधके सम्बन्धमें सीनेटके सदस्य ह्वाइट साइडको उत्तर देते हुए कही थी। ह्वाइट साइडने माँगकी थी कि रेलवेके यूरोपीय कर्मचारियोंकी हड़तालके सम्बन्धमें, जो तभी खत्म हुई थी, निर्वासित किये गये नौ अंग्रेजोंके साथ-साथ श्री गांधीको भी निर्वासित कर दिया जाये।

 
  1. १. यह पत्र श्री बोसके पोलकको लिखे गये १५ अगस्त, १९१७ के पत्रके उत्तरमें भेजा गया था। श्री बोसने इसमें पोलकसे निष्क्रिय प्रतिरोधके सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे थे।
  2. २. जॉन क्लिफर्ड (१८३६-१९२३); ब्रिटेनके चर्च प्रथा-विरोधी मंत्री और उदारदलीय राजनयिक, जिन्होंने १९०२ के शिक्षा विषेषकका विरोध कर बन्दोके रूपमें किया था।
  3. ३. सर विंस्टन लियोनार्ड स्पेंसर चर्चिल (१८७४-१९६५) अंग्रेज राजनयिक और ग्रन्थकार, उपनिवेश उपमन्त्री १९०५-८ (गांधीजी उनसे प्रथम बार १९०६ में मिले जब वे शिष्टमण्डलके साथ इंग्लैंड गये थे); युद्ध सामग्री मन्त्री, १९१७; युद्ध-मन्त्री, १९१८-२१; प्रधानमन्त्री, १९४०-४५, ५१-५५; १९५३ में साहित्यपर नोबेल पुरस्कार दिया गया।