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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

त्कारके वश नहीं होता; वह किसीपर शस्त्र नहीं चलाता। जैसे सर्वसाधारण सत्याग्रहमें काम कर सकते हैं वैसे सत्याग्रहका प्रयोग भी सब क्रियाओंमें हो सकता है। लोग सत्याग्रहका

ऐतिहासिक प्रमाण

माँगते हैं। इतिहासमें प्रायः शस्त्रक्रियाके प्रयोगका वर्णन है। उसमें स्वाभाविक क्रियाओंका वर्णन कम मिलता है। असाधारण और छुटपुट क्रियाएँ ही आश्चर्यजनक जान पड़ती हैं। सत्याग्रहका प्रयोग सदा ही सब दशाओं में होता रहता है। पिता पुत्रके साथ, पुत्र पिताके साथ, स्त्री पुरुषके साथ, पुरुष स्त्रीके साथ निरन्तर सत्याग्रहका व्यवहार किया करते हैं। जब पिताको रोष आता है और वह पुत्रको दण्ड देता है तब पुत्र पिताको शस्त्र प्रहारसे दण्ड नहीं देता, बल्कि पिताके वश होकर उसके रोषको रोकता है। पुत्र पिताके अन्याय-शासनके अधीन नहीं होता और अन्यायी पिताकी आज्ञाका निरादर करनेसे जो दण्ड मिलता है उसे सहन कर लेता है।

इसी प्रकार सरकारके अन्यायी

शासनका निरादर

करके और निरादरके दण्डको सहन करके हम अन्यायी शासन दूर कर सकते हैं। हम सरकारसे द्रोह नहीं करते। जब हम सरकारको अभयदान दे देंगे, अधिकारियोंपर शस्त्र-प्रहार करना नहीं चाहेंगे, उनकी गद्दी छीनना नहीं चाहेंगे, बल्कि केवल उनके अन्यायको ही हटाना चाहेंगे तो अवश्य और तत्काल वे हमारे वशीभूत हो जायेंगे।

यह प्रश्न किया जा सकता है कि सरकारके किसी शासनको हम अन्यायी क्यों कहें? ऐसा कहनेसे तो हम ही न्यायाधीश बन जाते हैं। यह ठीक है। परन्तु इस संसारमें हमको सदा ही न्यायाधीश बनाना पड़ता है। इसीलिए सत्याग्रही प्रतिस्पर्धी- पर शस्त्र प्रहार नहीं करता। यदि वह सच्चा होगा तो उसकी जय होगी, और यदि उसका विचार दूषित होगा तो वह अपने दोषका दण्ड स्वयं पायेगा।

ऐसा कहा जाता है कि एक ही आदमीके अन्याय-विरोधी होनेसे क्या लाभ हो सकता है, वह स्वयं दण्ड पाकर नष्ट हो जायेगा, कारागृहमें सड़ जायेगा अथवा फाँसीकी सजा पाकर अकाल मृत्युका ग्रास होगा। यह आपत्ति ठीक नहीं है। सदा ही सब सुधारोंके इतिहास में देखा जाता है कि वह एक ही पुरुषसे आरम्भ होते हैं। तपश्चर्याके बिना फल मिलना कठिन है। सत्याग्रहमें जो कष्ट उठाना पड़ता है वह शुद्ध तपश्चर्या है। जब तपश्चर्या फलके योग्य होती है तभी फल मिल जाता है। इस विचारसे सिद्ध होता है कि तपश्चर्याकी न्यूनतासे फल-प्राप्तिमें विलम्ब होता है। ईसा मसीहकी तपश्चर्या असीम होनेपर भी वह यूरोपके लिए पर्याप्त नहीं थी। यूरोपने ईसा मसीहका निरादर कर दिया है। अज्ञानताके कारण उसने ईसा मसीहके विशुद्ध चरित्रकी अवहेलना कर डाली है। कई ईसा मसीहोंको यूरोपकी प्रचण्ड वेदीपर आहुति देनी पड़ेगी तब उसे ज्ञान प्राप्त होगा। परन्तु ईसा इस कार्यमें सदा अग्रगण्य रहेगा। बीजका बोनेवाला वही है और इसलिए फलोत्पत्तिका श्रेय उसीको होगा। ऐसा कहा जाता