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सम्पूर्ण गांधी वाङ्म

सत्याग्रह अहिंसा-धर्म है, इसलिए वह सदा-सर्वदा धर्म्य है, इष्ट है। शस्त्र-बल हिंसात्मक है, इसलिए सभी धर्मोमें निन्दनीय समझा गया है। शस्त्र बलकी हिमायत करनेवाले भी उसके प्रयोगकी कई सीमायें बाँधते हैं। लेकिन सत्याग्रहकी कोई सीमा नहीं है। और यदि है तो केवल सत्याग्रहीकी तपश्चर्या अर्थात् दुःख सहन करनेकी शक्तिकी।

यह स्पष्ट है कि सत्याग्रहके वैध होने अथवा न होनेका प्रश्न बेकार है। सत्याग्रही ही उसका निर्णय कर सकता है। तटस्थ मनुष्य सत्याग्रह आरम्भ होनेपर उसकी परीक्षा कर सकता है। सत्याग्रही व्यक्तिको दुनियाकी अप्रसन्नता उसके मार्गसे रोक नहीं सकती। सत्याग्रहका आरम्भ गणितके नियमोंपर अवलम्बित नहीं है। यह कहनेवाला कि “सत्याग्रह तभी किया जाये जब सफलताके लक्षण स्पष्ट दीख पड़ते हों” राजनीति-कुशल या बुद्धिमान् भले ही हो, पर सत्याग्रही कदापि नहीं हो सकता। सत्याग्रही अपना काम [हानि-लाभका विचार किये बिना] सहज भावसे करता है।

सत्याग्रह और शस्त्र-प्रयोग ये दोनों उपाय अनादि हैं। प्रचलित धर्मशास्त्रोंमें दोनों ही की प्रशंसा की गई है। ये [दोनों] दैवी और आसुरी सम्पत्तिके ही रूप हैं। हमारा विश्वास है कि भारतवर्षमें दैवी सम्पत्तिकी प्रधानता थी। आज भी हमारा आदर्श वही है। आसुरी सम्पत्तिके प्राधान्यका बढ़िया नमूना यूरोप पेश कर रहा है।

दुर्बलता, उस दुर्बलताकी अपेक्षा――जिसे सूचित करनेके लिए हम तिरस्कार-सूचक परन्तु ज्यादा सही ‘कायरता’ शब्दका प्रयोग करते हैं ――उपर्युक्त दोनों शक्तियाँ वांछनीय हैं। इन दोनोंमें से कोई एक मार्ग ग्रहण किये बिना स्वराज्य-प्राप्ति अथवा सच्ची लोक-जागृति असम्भव है। कर्मानुष्ठानके बिना मिला हुआ स्वराज्य 'स्वराज्य' ही नहीं है। ऐसे स्वराज्यका लोगोंके मनपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता। बल और पौरुषके बिना लोक-जागृति नहीं हो सकती। नेता जो चाहें सो कहा करें, सरकार चाहे जितना प्रयत्न करे, परन्तु जबतक सरकार तथा हम सब लोग सत्याग्रहको प्रधान पद न देंगे तबतक शस्त्र प्रयोगकी वृद्धि अपने-आप होती ही जायेगी। शस्त्र प्रयोग घासके समान है; वह सभी तरहकी जमीनोंमें सहज ही उग सकता है। सत्याग्रहरूपी फसलके लिए प्रयत्न तथा साहसरूपी खाद की आवश्यकता है। और घास निराई न जानेसे जिस तरह बोया हुआ अन्न उससे दब जाता है उसी तरह जबतक हम तपश्चर्या द्वारा भूमिको साफ रखकर हिंसारूपी घासका उगना बन्द न करेंगे, तथा उगी हुई घासको दयाके अभ्याससे काट न डालेंगे तबतक वह उगती ही जायेगी। जो नवयुवक, जिन्हें वे सरकारके अत्याचारपूर्ण कार्य कहते हैं, उनसे क्षुब्ध और क्रुद्ध हैं उन्हें हम सत्याग्रह से मना सकते हैं और उनकी वीरताका, उनसे साहस और उनकी सहनशक्तिका, दैवी-शक्तिकी वृद्धि करनेमें उपयोग कर सकते हैं। इन कारणोंसे सत्याग्रहका प्रचार वांछनीय है और वह जितने शीघ्र हो सके उतना अच्छा। इसीमें राजा और प्रजा दोनोंका कल्याण है। सत्याग्रही, सरकार अथवा और किसीको भी हैरान नहीं करना चाहता। बिना विचारे सत्याग्रही कोई काम नहीं करता। वह कभी उद्धत नहीं होता। और इसलिए वह ‘बहिष्कार’ से तो दूर रहता है किन्तु स्वदेशी व्रतको अपना धर्म समझकर निरन्तर उसका पालन करता रहता है। वह केवल ईश्वरसे डरता है, इसलिए दूसरी कोई शक्ति उसे नहीं डरा सकती। शस्त्रके भयसे वह अपने कर्त्तव्योंका परित्याग नहीं करता।