पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/५६३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

३९५. पत्र: शंकरलालको

सत्याग्रह क्या है?

[सितम्बर २, १९१७][१]

भाईश्री शंकरलाल,

आप सत्याग्रहमें विषयके मेरे विचार जानना चाहते हैं; मैं उन्हें संक्षेपमें नीचे लिखता हूँ:

जिस शक्तिके विषयमें मुझे लिखना है, अंग्रेजी शब्द 'पैसिव रेजिस्टेन्स' उसका सूचक नहीं है। हाँ, ‘सत्याग्रह’ शब्दसे उसका भाव ठीक-ठीक प्रकट होता है। सत्याग्रह आत्माका बल है और वह शस्त्र बलका विरोधी है। सत्याग्रह धार्मिक साधन है इसलिए धार्मिक वृत्तिके मनुष्य ही उसका उपयोग ज्ञानपूर्वक कर सकते हैं। प्रह्लाद, मीराबाई आदि सत्याग्रही थे।मोरक्कोके युद्धमें अरबोंपर फ्रेंच तोपें गोले बरसा रही थीं। अपने विश्वासके अनुसार अरब लोग केवल धर्मके लिए युद्ध कर रहे थे। उन्होंने प्राणार्पणके लिए उद्यत होकर ‘या अल्लाह’ का घोष किया और वे तोपोंकी ओर दौड़ पड़े। इसमें [शत्रुओंको] मारनेकी गुंजाइश नहीं थी [मरनेकी ही थी]। फ्रेंच गोलन्दाजोंने इन अरबोंपर गोले चलानेसे इनकार कर दिया और हर्षनाद करते हुए तथा अपनी टोपियोंको हवामें उछालते हुए उन्होंने अरबोंका बन्धुभावसे आलिंगन किया। यह सत्याग्रहका और उसकी विजयका उदाहरण है। अरबोंने ज्ञानपूर्वक या जान-बूझकर सत्याग्रह किया हो, ऐसा नहीं था। भावके आवेशमें वे मृत्युका आलिंगन करनेके लिए अवश्य तैयार हो गये थे, पर उनमें प्रेमका अभाव था। सत्याग्रही द्वेष नहीं करता। वह अपनेको क्रोधसे प्रेरित होकर मृत्युकी भेंट नहीं चढ़ाता किन्तु अपनी दुःख सहनेकी शक्तिकी बदौलत अपने ‘शत्रु’ के अथवा अत्याचार करनेवालेके सामने मस्तक नहीं नवाता। अतएव सत्याग्रही मनुष्यमें वीरता, क्षमा और दया आदि गुण अवश्य होने चाहिए। इमाम हसन और हुसैनको कुछ ऐसे काम करनेके लिए कहा गया था जिनको वे न्याययुक्त नहीं समझते थे। इसलिए उन्होंने उनको करनेसे साफ इनकार कर दिया। उस समय उन्हें निश्चित रूपसे मालूम था कि मृत्यु हमारे आगे खड़ी है। तथापि इस विचारसे कि अन्यायके अधीन होनेसे हमारा पुरुषार्थ कलंकित होगा, हम धर्म-भ्रष्ट होंगे, उन्होंने मृत्युका ही आलिंगन किया। इन सुन्दर बालकोंके सिर जमीनपर लोट गये, पर वे अन्यायके अधीन नहीं हुए। मेरी धारणा है कि इस्लाम धर्मकी उन्नतिका कारण मुसलमानोंकी तलवारें नहीं, किन्तु मुसलमान फकीरोंकी आत्माहुति ही है। तलवारका वार सहने ही में सच्ची बहादुरी है; तलवार चलानेमें तनिक भी नहीं। यदि मारनेवालेकी भूल होगी तो यह याद उसे सदा कचोटती रहेगी कि मैंने हत्याका पाप किया है। पर मरनेवालेने यदि भूलसे ही मृत्यु अंगीकार की हो तो भी उसकी विजय ही है।

  1. १. गुजरातीके २-९-१९१७ के अंकमें प्रकाशित।