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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

इस वाक्यसे पुरानी गिरमिट-प्रथाकी गंध आती है। उस प्रथाके विरुद्ध जो एक शिकायत की जाती थी वह यह कि मजदूरोंको किस मालिकके अधीन काम करना होगा, यह पहलेसे तय कर दिया जाता था। मजदूरोंको अपना मालिक चुननेकी आजादी नहीं थी। नई प्रणालीके अन्तर्गत मालिकोंको मजदूरोंकी सुरक्षाके लिए चुन दिया जायेगा। मुझे यह बताने की जरूरत नहीं है कि भावी मजदूरोंकी सुरक्षाके लिए जो तरीका बनाया गया है उसमें वे कभी सुरक्षित अनुभव नहीं कर पायेंगे।

मजदूरोंको “प्रथम तीन वर्ष तक कृषि उद्योगोंमें काम करनेके लिए प्रोत्साहित किया जायेगा, और उनसे कहा जायेगा कि यदि वे वैसा करना स्वीकार कर लेंगे तो बादमें प्रवासीके नाते उन्हें बहुत सारे महत्त्वपूर्ण फायदे प्राप्त होंगे।”

गिरमिट स्वीकार करनेके लिए यह भी एक प्रलोभन है। इस तरहकी योजनाओंसे मैं अच्छी तरह परिचित हूँ, और उसके आधारपर सरकार और जनता, दोनों को विश्वास दिलाता हूँ कि धूर्त्त व्यक्तियोंके हाथमें ये तथाकथित प्रलोभन भोले-भाले नादान भारतीय मजदूरोंको बाध्य करनेके साधन बन जाते हैं। इस योजनाके बनानेवालोंका ध्यान इस तथ्यकी ओर आकृष्ट करना मेरा कर्त्तव्य है कि उन्हें करार तोड़नेके अपराधमें कभी कोई दण्ड नहीं दिया जा सकता है। यदि यह योजना लागू कर दी जाती है तो भारतमें फिर एक बार भर्ती-डिपो और प्रवासी एजेंटोंका भयंकर सिल- सिला स्थापित हो जायेगा। निःसन्देह इनका रूप अपेक्षाकृत अधिक सम्माननीय होगा, लेकिन होगा उसी ढंगका, और इनके जरिये अकथनीय शैतानी की जा सकेगी।

रिपोटके बाकी हिस्सेमें जनताको शायद दिलचस्पी न हो, लेकिन जो उसे पढ़ना चाहें, वे, मुझे विश्वास है, मेरे इस निष्कर्षसे सहमत होंगे कि यद्यपि योजनाके निर्माताओंने पुरानी प्रणालीमें जो बहुत-सी बुराइयाँ घुस गई थीं, उन्हें दूर करनेका भरसक प्रयत्न किया है, किन्तु वे भारतीय जनताके सामने एक ऐसी योजना रखनेमें सफल नहीं हुए हैं जो उसे ग्राह्य हो सके। मेरा निश्चित मत है कि ऐसी कोई योजना बना सकना सर्वथा असम्भव है। गिरमिटिया-प्रथामें स्थिति अस्थायी गुलामीकी होती थी। उसमें सुधार नहीं किया जा सकता; उसे तो समाप्त ही कर देना चाहिए। हम आशा करते हैं कि भारतको अब उस प्रथाका किसी रूपमें पुनरुज्जीवित किया जाना स्वीकार नहीं होगा।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन रिव्यू, सितम्बर १९१७