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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिया। प्रस्तावके शब्दों में यह सम्मेलन “ब्रिटिश गायना, ट्रिनीडाड, जमैका और फीजीके लिए सरकारी सहायतासे प्रवासकी एक नई प्रणालीके लिए प्रस्तावित योजनापर विचार करनेके लिए” बैठा था। जनताको यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि सहायता प्राप्त प्रवासकी प्रणाली केवल उपरोक्त चार शाही उपनिवेशोंपर लागू होगी। दक्षिण आफ्रिका, कैनेडा या आस्ट्रेलियाके स्वशासित उपनिवेशों, या मॉरिशसके शाही उपनिवेशपर वह लागू नहीं होगी।[१]इस भेदका क्या महत्त्व है, सो आगे बताया जा रहा है। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि भारत सरकारने अभीतक रिपोर्टपर विचार नहीं किया है, और उसमें उठाये गये मुद्दोंपर अपना निर्णय सुरक्षित रखा है।” ऐसा करना सर्वथा उचित भी है क्योंकि यह प्रश्न अत्यन्त गम्भीर है, और अभी पिछले ही वर्ष इसको लेकर सारे देशमें उथल-पुथल हुई थी। सन् १८९५ से ही किसी-न-किसी रूपमें यह सवाल सारे देशको उद्वेलित करता रहा है।

यह घोषणा भी स्वागतके योग्य है कि “सम्राट्की सरकारने भारत-सरकारकी सहमतिसे निर्णय किया है कि गिरमिटिया-प्रवासको फिर आरम्भ नहीं किया जायेगा,” और “जबतक उपनिवेशोंमें मौजूदा भारतीय प्रवासियोंको उनके वर्तमान गिरमिटसे मुक्त नहीं कर दिया जाता तबतक वहाँ स्वतन्त्र प्रवासियोंको नहीं भेजा जा सकता।

हालाँकि रिपोर्टमें ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनसे मन खुशीसे भर जाता है लेकिन उसका वह वास्तविक अंश जिसमें गिरमिटिया-प्रवासके स्थानपर लागू की जानेवाली योजना दी गई है, मेरी समझके अनुसार बहुत नरम ढंगसे कहा जाये तो निराशाजनक है। शब्द-रचनाके जिस पर्देमें लपेट कर इसे प्रस्तुत किया गया है, उसे उघाड़ देनेपर यह योजना गिरमिटिया-प्रवासकी ही एक प्रणाली नजर आती है; इतना जरूर है कि यह प्रणाली ज्यादा मानवीय है और इसमें कुछ ऐसी शर्तें रख दी गई हैं जो इस योजनाका लाभ उठानेवालोंके लिए लाभजनक हैं।

मुख्य मुद्दा जिसे हमें ध्यानमें रखना है, यह है कि सम्मेलनकी बैठक जानबूझकर प्रवासकी एक ऐसी योजनापर विचार करनेके लिए की थी जो भारतीय मजदूरोंके हितमें नहीं, बल्कि उनके उपनिवेशी मालिकोंके हितमें है। नई प्रणाली की रचना सम्बन्धित उपनिवेशोंकी सहायताके उद्देश्यसे की गई है। देशसे बाहर प्रवासी भेजनेके लिए भारतको कमसे-कम इस समय किसी निमित्तकी आवश्यकता नहीं है। यह बात मान लेनेका कोई कारण नहीं है कि किसी भी स्थितिमें भारतीय प्रवासियोंको बसानेके लिए उपर्युक्त चार उपनिवेश ही सबसे उपयुक्त हैं। इसलिए भारतीयोंके दृष्टिकोणसे जो बात सबसे अच्छी होगी वह यह है कि भारतसे बाहर ले जानेके लिए किसी भी प्रकारकी कोई सहायता प्राप्त प्रवास-प्रणाली होनी ही नहीं चाहिए। सहायताके अभावमें प्रवास पूर्णतः स्वतन्त्र और प्रवासीकी अपनी जिम्मेदारी और खर्चेपर निर्भर होगा। पिछले अनुभवोंसे तो यही पता चलता है कि वैसी स्थितिमें सुदूर उपनिवेशोंमें स्वेच्छासे जानेवाले प्रवासी बहुत थोड़े होंगे। रिपोर्टमें उल्लिखित सहायता प्राप्त प्रवासका अर्थ तो, बहुत नरम भाषामें कहा जाये तो, उत्तेजन-प्राप्त प्रवास है; और जिस समय भारतके

  1. १. देखिए “वक्तव्य: गिरमिट प्रथाके उन्मूलनपर”, ७-२-१९१७।