हो। श्री ऐडमीने बतलाया कि यदि बागान-मालिकों और रैयतके बीच कशमकश चलती रही तो बेतिया राजको उससे आर्थिक हानि होगी हो और इसलिए राजका हित इसीमें है कि वह दोनोंमें समझौता करानेके लिये कुछ त्याग करे। श्री गांधीने उत्तर दिया कि मुख्य बात यह है कि राजसे भुगतान कराना न्यायपूर्ण होगा या नहीं; शेष सब बातें अवान्तर हैं, फिर भी वे उसके लिए तैयार हैं कि प्रतिवेदनमें बेतिया राजके विरुद्ध बागान-मालिकोंके मामलेका एक विवरण दे दिया जाये, परन्तु उस मामलेमें कोई निर्णय देनेका काम समितिका नहीं है। श्री ऐडमीने कहा कि दोनों पक्षोंको अधिकतम सीमाएँ――२५ और ४० प्रतिशत――हमें बतला भर देनी चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि राजके विरुद्ध बागान-मालिकोंके मामलेका ब्यौरा बतलानेके बाद, सरकार के सामने वह बात सिद्ध हो जाये तो राजको दोनोंका अन्तर अदा कर देना चाहिए। अध्यक्षने पूछा कि क्या समिति थोड़ा आगे बढ़कर यह नहीं कह सकती कि बात सिद्ध है। श्री गांधीने शंका प्रकट की कि क्या वैसा कहनेके लिए मुकर्ररी पट्टोंके बारेमें पर्याप्त सूचना मिल सकेगी। अध्यक्षने बतलाया कि सरकारी दस्तावेजोंसे प्राप्त जानकारी यह है कि महाराजाने स्वयं ही वे पट्टे पौंडोंमें एक कर्जके[१] सिलसिलेमें जमानत जुटाने के लिए दिये थे।
श्री गांधीने कहा कि वे तो पूरी चीजको एक विशुद्ध व्यावसायिक सौदा मानते हैं और यदि बागान मालिकोंको उसमें कोई घाटा हो गया हो तो राज उसके लिए कोई अदायगी क्यों करे? उन्होंने विचार व्यक्त किया कि यदि जिलेमें मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध और पारस्परिक सद्भावना बनी रहे तो नीलकी खेतीसे अभीतक लाभ हो सकता है। श्री रोडने कहा कि अगले बन्दोबस्तके बाद बागान-मालिकोंको ही पूरा भार उठाना पड़ेगा। श्री गांधीने कहा कि तबतक उस समय के बढ़े हुए मूल्योंके आधारपर उनकी आमदनीमें वृद्धि भी तो हो जायेगी। इसपर अध्यक्षने कहा कि उनको वह २५ प्रतिशत तो कभी वापस मिलेगा ही नहीं जिसे वे अभी छोड़ रहे हैं। श्री रेनीने कहा कि बंगाल भू-धारण अधिनियम के अनुसार भू-स्वामी एक बार छोड़ी हुई लगान-वृद्धिको फिर कभी वसूल नहीं कर सकते। श्री गांधीने इसपर कहा कि भारतीय ठीकेदार [ठेकेदार] बंगाल भू-धारण अधिनियमकी त्रुटियोंका लाभ उठाकर उसको व्यवस्थाओंको निष्फल बना सकते हैं, बड़े-बड़े राज ऐसा नहीं कर सकते; किसानोंसे बढ़ा हुआ लगान वसूल करना छोटे भू-स्वामियोंके लिए आसान होता है। श्री रोडने कहा कि यदि श्री गांधी प्रस्तावसे सहमत हो जायें तो उनको प्रस्ताव स्वीकार करनेपर कोई आपत्ति नहीं
- ↑ १. बेतिया राजको १८८८ में ४,७५,०० पौंडके कर्जकी आवश्यकता थी। कुछ बागान-मालिकोंने उसका फायदा उठाकर राजसे मौरूसी पट्टे ले लिये थे और उसके बदले खुद राजकी जमानत देकर उसे इंग्लैंडसे कर्ज दिलवा दिया था। कलकत्तेको एक फर्मने इंग्लैंडकी एक फर्मकी सहायतासे उस कजैके लिए बातचीत चलाई। भारत सरकार और बंगालके लेफ्टिनेंट गवर्नरको इसकी जानकारी थी। कर्जकी एक शर्त यह थी कि बेतियाके महाराजा राजके तत्कालीन प्रबन्धक और एक भूतपूर्व बागान मालिक टी० एम० गिमनके उत्तराधिकारीकी नियुक्ति बंगालके ले० गवर्नरके अनुमोदनसे ही कर सकेंगे। देखिए सलैक्ट डॉक्यूमेंट्स ऑन महात्मा गांधीज़ मूवमेंट इन चम्पारन, १९१७-१८, पृष्ठ ६।