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३८५. पत्र: एस्थर फैरिंगको

बेतिया
अगस्त १२, १९१७

प्रिय एस्थिर,

आज मेरे पास थोड़ा-सा अवकाश है। तुमने जो पंक्तियाँ लिख भेजी हैं वे बड़ी अच्छी हैं; और वे सत्य हैं। विश्वास और आशा बड़ी चीज़ है। सफलताके लिए ये दोनों अपरिहार्य हैं। किन्तु प्रेम इनसे भी बड़ी चीज है। देखता हूँ, यहाँ प्रेमकी बड़ी कठिन परीक्षा होती है। आज ही सुबह मेरे पास एक हृष्ट-पुष्ट आदमी आया और मुझसे ऐसी सहायताकी जिद करने लगा जिसे दे सकना मेरे वशमें नहीं था। वह मुझे छोड़ने को तैयार नहीं था। मैंने उससे बहुत कहा-सुना। पर वह रोने और छाती पीटने लगा। उसका कोई मामला ही नहीं है। वह आशा और प्रेमवश मेरे पास आया था। उससे प्रेम करना चाहते हुए भी मुझे उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? मान लें कि उसके आँसू सच्चे थे, फिर भी क्या मुझे उसकी मौजूदगी सहनी चाहिए और उसके साथ बात करते जाना चाहिए? ऐसी समस्याएँ रोज खड़ी होती हैं। प्रेममें धीरज होना ही चाहिए। लेकिन ऊपर बताये गये मामलेमें निषेधका नियम कैसे लागू किया जाये? यदि मन शुद्ध हो और आदमीको अपनी ईमानदारीका भरोसा हो, तो एकमात्र विश्वसनीय मार्गदर्शक अन्तरात्मा ही है। हम अक्सर स्वयं अपनेको धोखा देते हैं।

फिलहाल तुम अहमदाबाद पत्र लिख सकती हो जहाँ मैं अबसे एक हफ्तेके अन्दर पहुँचनेकी आशा करता हूँ। आजसे तीन दिनके भीतर समिति अपना काम समाप्त कर चुकेगी।

तुम्हें साँपने काटा था तब तुम्हारा क्या इलाज किया गया था ? साँपने तुम्हें काट कैसे लिया था? कहाँ काटा था? क्या साँप पकड़ लिया गया था और उसे मार दिया गया था? साँपके काटने और साँपोंके बारेमें मुझे बड़ी दिलचस्पी है।

हम सबोंकी ओरसे प्यार सहित।

तुम्हारा,
बापू

[अंग्रेजीसे]
माई डियर चाइल्ड