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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नीय व्यवस्था नहीं की गई है; इस प्रणालीने इस अर्थमें भारतकी सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकताकी ओर उदासीनता दिखाकर पाप किया है। इस समय आश्रममें जो प्रयोग किया जा रहा है उसमें उक्त दोषोंसे बचनेका प्रयत्न किया जा रहा है। शिक्षाका माध्यम प्रान्तीय भाषा है। हिन्दी समान-माध्यमके रूपमें पढ़ाई जाती है एवं हाथ-बुनाई और खेती आरम्भसे ही सिखाई जाती है। छात्रोंको यह सिखाया जाता है कि वे इनको जीविकाका साधन समझें और पुस्तकीय-ज्ञानको मन और मस्तिष्कके शिक्षण एवं राष्ट्रीय सेवाका साधन मानें । पाठ्यक्रम ऐसा तैयार किया गया है कि वर्तमान संस्थाओं में स्नातकोंके पाठ्यक्रममें रखे गये सब मुख्य विषय १३ वर्षमें पूरे हो जायें। यह प्रयोग गुजरात कॉलेजके भूतपूर्व प्राध्यापक श्री शाहके सुपुर्द है। श्री शाह १० वर्ष तक प्रोफेसर गज्जरके साथ रहे हैं। उनके सहायक श्री नरहरि, बी० ए०, एल-एल० बी० ; श्री फूलचन्द शाह, बी० ए०; श्री दत्तात्रेय कालेलकर, बी० ए०; श्री छगनलाल गांधी और श्री किशोरलाल मशरूवाला, बी० ए०, एलएल० बी० हैं। श्री मशरूवालाके अतिरिक्त अन्य सभीने अपने और अपने परिवारोंके निर्वाह योग्य भत्ता लेकर अपना जीवन केवल इसी कार्यमें लगानेकी प्रतिज्ञा की है। श्री किशोरलालने अपनी सेवाएँ एक वर्ष तक बिना वेतन लिये दी हैं। उनके पास अपने निर्वाहके साधन हैं और यदि वर्षके अन्तमें उन्हें यह कार्य अनुकूल प्रतीत हुआ तो वे भी अपने शेष साथियोंका अनुगमन करेंगे। यह प्रयोग लगभग १२ लड़के-लड़कियों तक सीमित है। इनमें लड़कियाँ दो हैं। ये लड़के-लड़कियाँ या तो आश्रमके हैं या अध्यापकोंके बच्चे हैं। इसकी व्यवस्था गुजरात कॉलेजके उपाचार्य प्रा० आनन्दशंकर ध्रुव कर रहे हैं। मैंने इस प्रयोगपर बहुत बड़ी आशा बाँध रखी है। इसमें मेरी श्रद्धा अटूट है। यह असफल हो सकता है, किन्तु तब इसमें दोष प्रणालीका नहीं, बल्कि हम कार्यकर्ताओंका होगा। यदि यह सफल हो जायेगा तो इसी नमूनेकी अन्य ऐच्छिक संस्थाएँ खोली जा सकती हैं और सरकारसे भी उसे हाथमें लेनेका अनुरोध किया जा सकता है।

हिन्दी जल्दीसे-जल्दी अंग्रेजीका स्थान ले ले, यह एक स्वयंसिद्ध उद्देश्य जान पड़ता है। हिन्दी शिक्षित वर्गीके बीच समान-माध्यम ही नहीं, बल्कि जन-साधारणके हृदय तक पहुँचनेका द्वार बन सकती है। इस दिशामें देशकी कोई भाषा इसकी समानता नहीं कर सकती और अंग्रेजी तो कदापि नहीं कर सकती। एक मद्रास प्रान्त ही ऐसा है जिसके कारण कठिनाई उत्पन्न होती है; किन्तु मुझे दाक्षिणात्योंकी आत्मशक्ति और कल्पना-शक्तिमें पूरा विश्वास है और मैं जानता हूँ कि वे जल्दी ही हिन्दीको समान-माध्यमके रूपमें ग्रहण कर लेंगे। भाषाओंको सीखनेकी योग्यता जितनी मद्रासमें है उतनी किसी अन्य इलाकेमें नहीं। यह मेरा दक्षिण आफ्रिकाका अनुभव है। यद्यपि वहाँ बहुत बड़ी संख्या द्रविड़ोंकी है, फिर भी हिन्दी भाषी जितनी जल्दी तमिल या तेलगू सीखते हैं उसकी अपेक्षा तमिल या तेलगू लोग हिन्दी ज्यादा जल्दी सीख लेते हैं।

बस, इन प्रयोगोंके निमित्त ही मैं आपसे आर्थिक सहायता माँगता हूँ। मुझे आशा है कि यदि आप इनमें से किसी भी प्रवृत्तिसे सहमत हैं तो आप जो कुछ दे सकते हैं मुझे भेज देंगे। यदि आप चाहें तो अपने दानकी रकम किसी खास कामके लिए निर्धारित कर सकते हैं।