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आश्रम-कोषके लिए परिपत्र

खर्च आ रहा है और हाथ-करघा उद्योगपर १०० रुपये प्रति मास। अगले वर्ष में हिन्दी प्रचारपर २०० रुपये प्रति मास खर्च होगा। शिक्षा और हिन्दी-प्रचारका खर्च क्रमशः बढ़ेगा। इसमें १०० रुपये मासिक मेरी यात्राका खर्च जुड़ जायेगा जो किसी-न-किसी सार्वजनिक प्रवृत्तिके सम्बन्धमें ही होता है। मेरी यात्राका यह खर्च आसानीसे जुट जाता है। इस प्रकार पूरी रकम होती है १,००,००० रुपये पूँजीगत खर्च और १,३०० रुपये तथा २०० रुपये मासिक क्रमशः बढ़ते हुए खर्चके लिए रखकर कुल १,५०० मासिक; अर्थात् अगले बारह मासका खर्च १८,००० रुपये।

मैं उपर्युक्त प्रवृत्तियोंका संक्षिप्ततम विवरण देनेका प्रयत्न करूँगा।

हाथ-करघा उद्योग मृतप्राय: अवस्थामें है। सभी मानते हैं कि मिलोंके वस्त्र-उद्योगका भविष्य कुछ भी हो, हाथ-करघा उद्योगको नष्ट न होने देना चाहिए। डॉ० मैनने अपनी अभी हालमें प्रकाशित एक पुस्तिकामें कहा है कि उन्होंने कुछ विशिष्ट गाँवों में जो वर्तमान दरिद्रता देखी उसका कारण कदाचित् हाथ-करघोंका, जो खेतीके धन्धेकी पूर्ति करते थे, नष्ट हो जाना है। अतः आश्रमका उद्देश्य यह है कि प्रत्येक आश्रमवासी हाथसे कपड़ा बुनना सीखे और इस प्रकार इस कलाके रहस्यों और दोषोंका स्वयं अध्ययन करके इस उद्योगकी रक्षाके साधन ढूंढे। अब सभी आश्रमवासी, बुनकर वर्गके न होने पर भी, कुछ-न-कुछ इस कलाको सीख गये हैं। और कुछ तो इस कलामें खासी दक्षता प्राप्त कर चुके हैं। आश्रम इस समय कुछ बुनकर-परिवारोंका, जिनमें १७ प्राणी हैं, भरण-पोषण कर रहा है और एक परिवार इस कलाको आश्रममें सीखनेके बाद अपना स्वतन्त्र व्यवसाय जमा चुका है एवं उससे अपना निर्वाह करनेका प्रयत्न कर रहा है। आश्रममें सात करघे चल रहे हैं। उनमें ३,००० रुपयेकी पूंजी लगी है। यह उद्योग जल्दी ही अपने पैरोंपर खड़ा हो जायेगा। आश्रम लगभग ५०० रुपयेका कपड़ा बेच भी चुका है और कई लोग जो पहले विदेशी या देशी कारखानोंका बना घटिया कपड़ा पहना करते थे, अब आश्रमके बने मजबूत कपड़ेको व्यवहारमें ला रहे हैं। इस उद्योगसे १० वर्षमें सैकड़ों बुनकरोंके, जो फिलहाल अपना धन्धा अत्यन्त निराश होकर छोड़ चुके हैं, अपने धन्धेमें पुनः प्रतिष्ठित हो जानेकी आशा है। इस समय जो शिक्षाप्रणाली प्रचलित है और जो भारतकी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए सर्वथा अनुपयुक्त मानी जाती है, वह पाश्चात्य प्रणालीकी भौंडी नकल है और उसका माध्यम एक विदेशी भाषा होनेके कारण स्कूलों और कॉलेजोंसे निकलनेवाले हमारे युवक निःसत्त्व हो गये हैं और क्लकों एवं पद-लोलुपोंकी एक सेना खड़ी हो गई है। उसके कारण मौलिकताका समस्त स्रोत सूख गया है, देशी भाषाएँ दरिद्र हो गई हैं और शिक्षित वर्गोंके सम्पर्कसे जन-साधारण जो उच्चतर ज्ञान पा सकते थे, वे उसके लाभसे वंचित हो गये हैं। इस प्रणालीका परिणाम यह हुआ है कि शिक्षित वर्गों और जन-साधारणके बीच एक खाई खुद गई है। उसने मस्तिष्कको गति अवश्य दी है; किन्तु शिक्षाका आधार धार्मिक न होनेसे आत्माको अभावग्रस्त रखा है और दस्तकारियोंका शिक्षण न देकर शरीरको क्षीण बना दिया है। पाठ्यक्रममें कृषिके प्रशिक्षणकी कोई उल्लेख-

१. पूना एग्रीकल्चर कॉलेजके, प्राध्यापक; लैंड ऐंड लेबर इन ए डेकन विलेज के लेखक।