तब भी आप लोगोंमें से, जो मुझे जानते हैं उनसे मेरी प्रार्थना है कि उन्हें मेरे आत्मिक सन्तोषकी खातिर ही मदद करनी चाहिए। जबतक मुझे अपनी भूल मालूम नहीं पड़ेगी तबतक ये प्रवृत्तियाँ मेरी जीवन-डोर होंगी। इन प्रवृत्तियोंमें मेरी देशसेवाकी [वृत्तिकी] चरम परिणति है।
मैं खुद वहाँ आकर आपसे मिलता लेकिन मुझे नौ महीने तक चम्पारनसे निकलनेकी कोई सम्भावना नहीं दिखाई देती। इस बीच प्रवृत्तियाँ जारी रहेंगी और खर्च भी होता रहेगा।
समाचारपत्रों द्वारा चन्दा माँगनेकी फिलहाल मेरी कोई इच्छा नहीं है। ऐसा करनेसे पहले अभी कार्यको आगे बढ़ानेकी तथा विशेष अनुभव प्राप्त करनेकी आवश्यकता है। आप जितनी बन सके उतनी मदद सीधे सत्याग्रहाश्रम, अहमदाबाद अथवा मुझे मोतीहारीके पतेसे भेजें तो ठीक होगा। आपके मित्रवर्गसे सहायता मिल सके तो प्रार्थना है कि वह भी लें। आप स्वयं आर्थिक सहायता देनेमें समर्थ न हों तो मेरी इच्छा है कि आप अपने समर्थ मित्रोंसे सहायता प्राप्त करें। कोई व्यक्ति अपने मित्र-समुदायसे बाहर जाकर सहायताकी याचना करे यह मैं नहीं चाहता।
प्रत्येक प्रवृत्तिसे सम्बन्धित हिसाब-किताब ध्यानपूर्वक रखा जाता है। और इस हिसाबका संक्षिप्त विवरण प्रतिवर्ष मित्र-वर्गमें वितरित करनेका इरादा है।
कोई प्रश्न पूछना चाहें तो पूछियेगा। {{Right|मोहनदास करमचन्द गांधीके वन्देमातरम्
गाँधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती मसविदे (एस० एन० ६३७८) से छपी हुई प्रतिसे।
सौजन्य: राधाबेन चौधरी
३५८. पत्र: मगनलाल गांधीको
मोतीहारी
आषाढ़ सुदी १२ [जुलाई २, १९१७][१]
[मैंने] श्री यूबेंकको[२] लिखा[३] है कि उस विषयके सम्बन्ध में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है। मैं चम्पारनमें कुछ महीने तक रुकूँगा। फिर भी यदि मुझे फुरसत मिली और वे मुझसे भाषण देनेका आग्रह करें तथा जिस विषयपर मुझे बोलना है उससे सम्बन्धित साहित्य भेजें तो मैं भाषण लिखनेका प्रयत्न करूँगा।[४]