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पत्र: एस्थर फैरिंगको

मित्रों और सहयोगियोंके प्रति, जिनमें से सभी मेरी तरह सनकी नहीं हैं में उससे भिन्न व्यवहार करूँ तो में अपने आपको उनके सौहार्द और विश्वासका पात्र नहीं मानूँगा।

मो० क० गांधी

‘पानियर’ में ५-७-१९१७ को प्रकाशित अंग्रेजी पत्र (एस० एन० ६३६८) की फोटो-नकलसे।

 

३५२. पत्र: एस्थर फैरिंगको

मोतीहारी
जून ३०, १९१७

प्रिय एस्थर,

तुम्हारे दो पत्र मेरे सम्मुख हैं। मैं अहमदाबादसे २८ तारीखको रवाना हो गया था; वहाँ मेरा समय ठीक गुजरा।

मुझे शहरका जीवन सदा ही निरुत्साहजनक और गाँवका मुक्त, शक्तिप्रद और दिव्य लगता रहा।

यदि हम अपने इन अनेक गुणों, शक्तियों और अनुसंधान-बुद्धिका उपयोग न करें तो फिर हमें ईश्वरने ये चीजें क्यों दी हैं? तुमने वही प्रश्न किया है जो मेरे मनमें उठा है और जिसे हजारों लोग सदा करते रहते हैं। मेरा विनम्र मत यह है कि ईश्वरने हमारे मार्ग में प्रलोभन रखे हैं जो उतने ही प्रबल होते हैं जितनी नैतिक उत्थानकी सम्भावनाएँ। हम अपनी आविष्कार शक्तिका उपयोग अपने आन्तरिक विकास या बाह्य सुखोपभोगके लिए कर सकते हैं। मैं अपनी बुद्धि को हिमालयके प्रपातोंका क्या उपयोग किया जा सकता है, यह खोजनेमें लगा सकता हूँ; किन्तु इसके द्वारा में आदमीको आरामपसन्द बनानेके सिवा और कुछ नहीं कर सकूंगा। मैं अपनी बुद्धिको अपने भीतरके उन नियमोंको खोजने में लगा सकता हूँ जो हिमालयके प्रपातोंपर लागू होते हैं; इससे मैं अपने और मानव जातिके स्थायी सुखमें वृद्धि करके अपनी और मानव जातिकी सेवा करता हूँ। तुम यह प्रमाणित करनेवाले असंख्य उदाहरण स्वयं सकती जुटा हो कि हमारी समस्त बुद्धि केवल हमारे आन्तरिक विकासमें लगनी चाहिए और यह विकास केवल आत्म-संयमसे ही हो सकता है।

श्री बिटमैनसे[१] मेरा अभिवादन कहना और उन्होंने तुम्हें अवकाश मिलनेपर आश्रम में आनेकी जो अनुमति दी है उसके लिए मेरी ओरसे धन्यवाद देना।

उक्त युवकके बारेमें तुम्हें जो अनुभव हुआ है, उसमें कोई असाधारण बात नहीं है। तुम जिन स्त्री-पुरुषोंसे मिलती हो उनका सुधार करनेके लिए अधीर मत हो जाओ। शुरू से अन्त तक प्रयत्न तो हमें अपने आपको सुधारनेका करना है। हम जब किसी औरको

 
  1. १. दक्षिण भारतमें डेनमार्कके मिशनके एक वरिष्ठ सदस्य।