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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सहज शिकार हो गया था। मैं अबसे २१ वर्ष पूर्व काठियावाड़की अदालतोंमें बिलकुल इसी पोशाकको पहनकर जाता था जिसे मैं चम्पारनमें पहनता हूँ।

मैंने एक परिवर्तन किया है और वह यह कि बुनाई और खेतीका धन्धा अपनाने एवं स्वदेशीका व्रत लेनेपर मेरे कपड़े अब बिलकुल हाथसे कते और बुने होते हैं और उन्हें या तो मैं स्वयं तैयार करता हूँ या मेरे साथी कार्यकर्त्ता तैयार करते हैं। श्री इर्विनके पत्रकी ध्वनि यह है कि मैं काश्तकारोंपर असर डालनेके लिए उनके सम्मुख ऐसी पोशाक पहनकर जाता हूँ और इसका उपयोग में अस्थायी तथा विशेष रूपसे चम्पारनमें ही करता हूँ। तथ्य यह है, मैं राष्ट्रीय पोशाक इसलिए पहनता हूँ कि में समझता हूँ कि यह एक भारतीयके लिए अत्यन्त स्वाभाविक और शोभनीय पोशाक है। मेरा विश्वास है कि यूरोपीय पोशाककी नकल करना हमारे पतन, अपमान, और दुर्बलताका चिह्न है और हम अपनी इस राष्ट्रीय पोशाकको छोड़कर राष्ट्रीय पाप कर रहे हैं, जो भारतकी जलवायुके लिए उपयुक्त है, जिसकी सादगी, कला और सस्तेपनमें पृथ्वी भरकी कोई पोशाक मुकाबला नहीं कर सकती एवं जो स्वास्थ्य और सफाईकी दृष्टिसे निर्दोष है। यदि अंग्रेजोंमें झूठा घमंड और गौरवके झूठे भाव न होते तो यहाँ रहनेवाले अंग्रेज भारतीय पोशाकको बहुत पहले ही पहनने लग जाते। मैं यहाँ प्रसंगवश यह भी कह दूँ कि मैं चम्पारनमें इधर-उधर नंगे सिर नहीं जाता। जूतें तो में धार्मिक कारणोंसे नहीं पहनता; किन्तु में यह भी देखता हूँ कि यथासम्भव उन्हें न पहनना अधिक स्वाभाविक और स्वास्थ्यके लिए लाभप्रद है।

श्री इविन और आपके पाठकोंको यह बतलाते हुए मुझे खेद होता है कि ‘परिषद्के भूतपूर्व माननीय सदस्य’ मेरे आदरणीय मित्र बाबू व्रजकिशोर प्रसाद अब भी असंस्कृत ही हैं। वे अपने प्रान्तकी टोपी पहनते हैं और कभी नंगे पैर नहीं चलते और जिस घरमें हम रहते हैं उसमें भी खड़ाऊ पहनकर भयंकर खटखटकी आवाज करते रहते हैं। मेरे साथ उनका गह्रा सम्पर्क है, फिर भी [बाहर] उन्हें अपनी अर्द्ध-अंग्रेजी पोशाकको त्यागनेका साहस नहीं होता; जहाँ भी वे अधिकारियोंसे मिलने जाते हैं, अपने पैरोंको दुटंगे परिधान [पतलून] में डालते हैं और यह मानते हुए भी कि उन्हें अपने पैर संकुचनशील जूतोंमें कसनेसे बहुत कष्ट होता है, वैसे जूते पहनते हैं। मैं उन्हें यह विश्वास नहीं दिला पाता कि यदि वे अधिक फबनेवाली और कम कीमतकी ‘धोती’ पहनेंगे, तो न उनके मुवक्किल उन्हें छोड़ जायेंगे और न अदालतें ही उन्हें सजा देंगी। मैं आपसे और श्री इविनसे भी कहता हूँ कि उन ‘कहानियों’ पर विश्वास न करें जिन्हें वे और आप मेरे मित्रोंके बारेमें सुना करते हैं; बल्कि शिक्षित भारतीयोंको अपने उन आचारों, आदतों और रिवाजोंको, जो बुरे या हानिकर सिद्ध नहीं हुए हैं, छोड़नेके विरुद्ध किये जानेवाले पवित्र संघर्ष में मेरा साथ दें। अन्तमें मैं आपको और श्री इर्विनको चेतावनी देनेका साहस करता हूँ कि यदि आप इसी तरह असिद्ध तथ्योंके आधारपर आलोचना करते रहेंगे तो आप दोनों चम्पारनमें मेरी उपस्थितिको जिस उद्देश्यके लिए खतरा समझते हैं, उस उद्देश्यको ही हानि पहुँचायेंगे। कृपया मेरी यह बात बिलकुल सही मानें कि मैं अपने देशवासियोंके प्रति जिस तरह बरतता हूँ, अगर अपने उन सैकड़ों अंग्रेज