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३४१. पत्र: एस्थर फैरिंगको

बेतिया
जून ९, १९१७

प्रिय एस्थर,

तुम्हारे पास जो कागज भेजे गये थे, उनपर से तुमने समझ लिया होगा कि रांची गया था। कल ही वहाँसे लौटा हूँ। लौटनेपर तुम्हारा पत्र मिला।

तुम्हारे सवालका जवाब देना कठिन है। भारतमें यूरोपीयोंने जो-कुछ किया है उसका प्रभाव कुल मिलाकर इस देशके लिए अच्छा नहीं हुआ। यहाँ आनेवाले ज्यादातर यूरोपीय पश्चिमके सद्गुण पूवको देनेके बजाय स्वयं यहाँके दुर्गुणोंके शिकार हो गये हैं। शायद कुछ और हो भी नहीं सकता था। धर्मका उनपर कोई स्थायी प्रभाव तो पड़ा नहीं है; यह बात आजके युद्धसे भी सिद्ध हो जाती है। मेरी मान्यता तो यह है कि आधुनिक सभ्यताका ईसाइयतसे निश्चय ही विरोध है। और यदि यूरोपीय कोई चीज लेकर भारत आये हैं, तो वह यह आधुनिक सभ्यता ही है, ईसा मसीहका जीवन नहीं। तुम और कुछ इने-गिने अन्य लोग उस जीवनकी बानगी रखनेका प्रयत्न कर रहे हो। उसकी छाप इस भूमिपर निश्चित रूपसे पड़ेगी ही। किन्तु इसमें समय लगेगा। भगवान्‌के कामकी गति तो धीमी ही होती है। तुम और तुम्हारे जैसे अन्य लोग बुराइयोंसे घिरकर भी उनसे प्रभावित नहीं होते। वे लोग उस आवरणके पीछे जो अच्छाई छिपी पड़ी है, उसे ढूंढ निकालते हैं और उसे भी अपनी सद्गुण-सम्पत्ति में मिला लेते हैं और इस तरह पूर्व और पश्चिमका मणि कांचन संयोग हो जाता है। जो मैं चाहता हूँ, सो तो यह है कि हम अपनी-अपनी पद्धतिका आदान-प्रदान करें। और इसीलिए मैंने तुम्हारे आश्रम आनेका स्वागत किया था। मैं उन सभी यूरोपीय मित्रोंके यहाँ आनेका स्वागत किया करता हूँ जो अपनी उत्तम परम्पराओंके प्रति सच्चे और इसके साथ ही इतने उदार भी हैं कि यह देश उन्हें जो उत्तम वस्तु दे सकता है, उसे लेनेके लिए तैयार हैं। मैं समझता हूँ, मेरी बात स्पष्ट हो गई होगी। आवश्यकता हो, तो निस्संकोच इस चर्चाको आगे चलाना।

सरकार जो समिति नियुक्त करने जा रही है, सम्भव है मैं उसपर काम करूँ। मैं इस समय इस सम्बन्ध में एक सर्वसामान्य टिप्पणी[१]तैयार कर रहा हूँ और उससे तुम्हें मेरी रांची यात्राका ब्यौरा भी मिल जायेगा। मेरा वहाँ जाना अच्छा ही हुआ।

श्रीमती गांधी और देवदास इस समय यहाँ हैं। पोलक भी यहाँ हैं। यदि मैं

गिरफ्तार कर लिया जाता, तो श्रीमती गांधी और देवदास गरीब किसानोंके बीच काम करते और उन्हें संघर्ष करनेके लिए प्रोत्साहित करते । मेरी बड़ी इच्छा है कि तुम जल्दीसे-जल्दी श्रीमती गांधीसे मुलाकात कर सको।

 
  1. १. देखिए “चम्पारनकी स्थितिके सम्बन्धमें टिप्पणी―६”, १७-६-१९१७।