३३३. पत्र: मगनलाल गांधीको
बेतिया
[मई १९१७][१]
तुम्हारा पत्र मिला। तुमने आदरणीय खुशालभाईको लिखा, सो ठीक किया। यदि सम्मिलित रसोईके प्रति तुम्हारी वैसी ही श्रद्धा रही जैसी तुम आदरणीय खुशाल-भाईके प्रति रखते हो तो यह प्रयोग अवश्य सफल होगा। इससे भी आगे जाकर शुद्धताके सम्बन्धमें वे जो नियम बतायें हम उन्हें स्वीकार कर सकते हैं। धर्म छुआ-छूतके सिद्धान्तको माननेमें नहीं है, यह बात उन्हें विनयपूर्वक लेकिन दृढ़तासे समझाना। अस्पृश्यताको अखा भगतने [धर्मके] “अनावश्यक और अतिरिक्त अंग” के रूपमें माना है। यहाँ तो मैं रससे सराबोर हो रहा हूँ। लोगोंके कष्टोंकी सीमा नहीं। [मुझे] गाँवोंका अद्भुत अनुभव मिलता रहता है।
यदि मावजीभाई अन्य दृष्टिसे अच्छ व्यक्ति हों तो उनके लिए वेतन निश्चित कर देना। यह आवश्यक है कि ऐसे व्यक्ति शिक्षण प्राप्त करें और बुनाईके बारेमें पूरा ज्ञान प्राप्त करें ताकि ऐसे हजारों लोगोंको रखा जा सके।
जो सज्जन आश्रमका खर्च देनेके विचारसे आये हैं उन्हें आश्रमका पूरा हिसाब-किताब बता देना। यदि वे पैसा दें तो उसे लेनेमें कोई हर्ज नहीं दिखाई देता। मैं प्रभुदासको पत्र[२] लिखा रहा हूँ कि यदि वह यहाँ आना चाहे तो आ सकता है। यदि चि० छगनलाल इस बार विलम्बसे आता तो उस देरीका कोई इलाज नहीं बचता, यह सच है। अन्तिम समयमें अनायास ही सारी परिस्थितियाँ अनुकूल हो गई, इसलिए लगता है कि सब कुछ ठीक हुआ।
तुम पूछते हो यहाँ मेरा काम कब पूरा होगा। काम बहुत बड़ा है, उसके
महत्त्वको देखते हुए इसमें अनेक वर्ष व्यतीत हो जा सकते हैं। मेरी समझमें छः मास तो अवश्य लगेंगे। यहाँ मुझे अमूल्य सहायक मिले हैं। अन्य लोग आनेवाले हैं। मैं तो ईश्वर कृपाका घूँट पीता रहता हूँ। प्रभुदासका दिमाग दूधकी कमीके कारण खाली हो गया है, ऐसी बात नहीं। चि० छगनलालने शंका उठाई है। उसका कारण है प्रभुदासके विकासकी एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें जाना। जब इस तरह के बड़े परिवर्तन होते हैं तब ज्यादातर लोग किसी न किसी रूपमें इनसे प्रभावित होते ही हैं। इसके अलावा प्रभुदासने देवदासके साथ होड़ करनेमें अथक प्रयत्न किया, यह में