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३३२. पत्र: सांकलचन्द शाहको

बेतिया
जेठ सुदी १ [मई ३०, १९१७][१]

भाई श्री सांकलचन्द,

मुझे अब फुरसत है। आपका पत्र फिर पढ़ गया। समय-पत्रक[२] भी पढ़ा। समय-पत्रकसे तो मेरा दिमाग हमेशा चक्कर खाने लगता है। मैंने उसे याद रखनेकाप्रयत्न नहीं किया।

मुझे लगता है कि इतिहास और भूगोलको, जो अलग-अलग रखे गये हैं, गुजरातीके साथ मिला दिया जाये। हम गुजराती भाषाके माध्यमसे मानसिक शक्तिका विकास करना चाहते हैं। इसलिए हम एक दिन साहित्यकी पुस्तकका और दूसरे दिन इतिहासकी पुस्तकका प्रयोग करें। जो-कुछ पढ़ाना है, वह पहले जबानी सुना दें और फिर [विद्यार्थियोंसे] उसमें से कुछ पढ़वायें। इससे यदि साहित्यके अध्ययनमें कुछ कमी पड़ती हो तो पड़े। जिस देशका इतिहास पढ़ाया जाये, उसीका भूगोल भी पढ़ाया जाये। इससे भूगोलका अध्ययन सुगम और सरस हो जायेगा । रही इतिहासकी बात, सो जहाँतक उसे साहित्य मानें, वहांतक [छात्रों के सामने] कुछ सूत्र-वाक्य सुन्दर भाषामें प्रस्तुत करें। उदाहरणार्थ, “हम रामचन्द्रको अवतारी पुरुष――साक्षात् ईश्वर मानते हैं। अवतार शब्द संस्कृतका है। वह संस्कृतकी ‘अव-पूर्वक तृ’ धातुसे बना है और उसका अर्थ होता है नीचे आना। ईश्वर नीचे (इस पृथ्वीपर) आया, यही उसका अवतार है। किन्तु, आज हम अवतारी रामके सम्बन्धमें विचार नहीं करेंगे।

आज तो हम इस बातपर विचार करेंगे कि ऐतिहासिक राम कौन थे।” इन वाक्योंमें कोई दम है या नहीं, यह तो आप शिक्षक लोग जानें, किन्तु मेरा दृष्टिकोण बतानेके लिए ये पर्याप्त हैं। इसमें साहित्यका समावेश हो जाता है। रामचन्द्रका इतिहास पढ़ाते समय हम ऐसा ही कुछ लिखें। पहले हम या तो बोलकर ऐसा लिखा दें या स्वयं ही ब्लैक बोर्डपर लिख दें और उसके बाद रामचन्द्रकी कहानी सुनायें। उसमें हम जान-बूझकर कुछ कठिन शब्दोंका प्रयोग करें। शिष्य उनका अर्थ पूछें और तब गाड़ी आगे चले। उनका जन्म अयोध्यामें हुआ था, इसलिए अयोध्याका भूगोल पढ़ाना होगा। नक्शा तो होगा ही। वह नगर अहमदाबादसे कितनी दूर है, वहाँ कैसे जा सकते हैं, वहाँ आज क्या है, कवियोंने उसका जैसा वर्णन किया है वह वैसा है या नहीं, यह सब साहित्य है, इतिहास है और भूगोल भी। इस कथामें आप कितना साहित्य सिखाना चाहते हैं, कितना इतिहास और कितना भूगोल, यह अपने मनमें पहले ही तय कर लें और फिर अपने शिष्योंके साथ एकाकार हो जायें।

  1. १. इस तारीखको गांधीजी बेतियामें थे।
  2. २. गांधीजीकी राष्ट्रीय शालाका समय-पत्रक; देखिए “राष्ट्रीय गुजराती शाला”, १८-१-१९१७ के बाद।