३१८. पत्र: रेवाशंकर सोढाको
बेतिया
जेठ सुदी १ [मई २२, १९१७][१]
तुम्हारा पोस्टकार्ड मिल गया है। यदि भाडलाका घर चला जायेगा तो मैं केवल तुम्हारा दोष मानूँगा। तुम्हें तुरन्त कार्रवाई करनी थी। जो उत्तर आया था, वह मैंने तुम्हें भेज दिया था। उसके बाद तुमने तुरन्त प्रार्थनापत्र क्यों नहीं दिया? अब साथका पत्र बेचरभाईको दे देना। उन्हें साथ लेकर स्वयं जाना और जहाँ प्रार्थनापत्र देना हो, दे देना।
तुम करघा-खर्च खाते जो रुपया माँगते हो उसके सम्बन्धमें चि० छगनलालको लिखना। जो-कुछ उचित लगेगा, वह भेज देगा। तुम कितना काम कर चुके हो, यह नहीं लिखते। नहीं मालूम तुम पूरे दिन इस काममें जुटे रहते हो या नहीं। तुम बुनाईके काममें दिन-दिन अधिक कुशल होते जा रहे हो और तुम दोनोंको बिलकुल उसी काममें लग जाना चाहिए। ऐसा करोगे तभी सफल हो सकोगे।
चि० छोटमको अहमदाबाद भेजना हो तो भेज देना। किन्तु वह भी बिलकुल राजी हो तभी। उसे राजी करना जरूरी है। जबरदस्ती मत भेजना। तुम्हारे साथ आनेकी उसकी तीव्र इच्छा थी, इसलिए मैंने उसे भेजा। वह अहमदाबादमें भी तभी चल सकेगा जब उसकी अपनी इच्छा होगी।
तुम्हारा दक्षिण आफ्रिका जाना मुझे कतई पसन्द नहीं। रतनसीकी[२]इस इच्छाके अनुसार चलनेमें मुझे तुम्हारा अहित ही होता दिखाई देता है। रतनसी लिखते तो रहते हैं, किन्तु अभीतक उन्होंने भेजी एक पाई भी नहीं है। मेरा खयाल है, यदि तुम वहाँ गये तो जैसे उनका जीवन व्यर्थ गया वैसे ही तुम्हारा भी जायेगा। तुम चाहो तो यह पत्र रतनसीको भेज दे सकते हो।
यदि तुम दोनों बुनाईके काममें लगे रहे तो मुझे उसका भविष्य उज्ज्वल दिखता है।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू ० ३४२१) से।
सौजन्य: रेवाशंकर सोढा।