पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/४४१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०५
पत्र: ए० के० हॉल्टमको

चाहते हैं और जिरात भूमिको[१]वापस लेनेको तैयार हैं। आपका ऐसा खयाल है कि उसे वापस ले लेनेमें आपको अधिक मुनाफा है। मैंने उन्हें यह भी बताया कि आपके विचारसे लोगोंने आपके पूर्वजोंसे जिरात जमीन न केवल इच्छापूर्वक ली थी बल्कि बहुत ही तीव्र इच्छासे ली थी और वह रैयतको नीलकी खेतीके बदलेमें नहीं, बल्कि इसलिए दी गई थी कि वे जमींदारोंको मजदूर देनेकी जिम्मेदारीसे मुक्त हो सकें। मैंने आगे उन्हें बताया कि आपने मुझे श्री बर्कलेका[२]श्री गॉर्लेको[३] लिखा पत्र दिखाया था जिसमें इसी विचारकी पुष्टि की गई थी और अन्तमें उन्हें बताया कि इस मुद्देपर कि यदि उन्होंने जिरातकी जमीन आपको लौटा दी तो आप उनसे जबतक उनके अनुबन्धोंका समय पूरा नहीं हो जाता फिर पहलेकी तरह नीलकी खेती करनेकी आशा करें। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं आपसे ऐसी वकालत करूंगा कि रैयतको फिरसे नीलकी खेती करनेको कहना, काफी अनुचित होगा (जिसके कारण मैं अभी बयान करूँगा)। फिर मैंने उन लोगोंके नाम माँगे जो तुरन्त जिरात छोड़ना चाहते थे, यद्यपि वे उसके बदलेका पूरे कृषि-वर्षका पैसा अदा कर चुके थे। इसके परिणामस्वरूप १७५ से अधिक लोगोंने तुरन्त वहीं अपने नाम दिये और दो दिनोंसे लोगोंका ताँता लगा हुआ है। यह लिखते समय तक नाम देनेवालोंकी संख्या लगभग ५०० तक पहुँच गई है। जिरात जमीनके लिए ली गई रकम, रसीदें और खातोंको देखते वक्त उसमें मैंने पाया कि ७० काश्तकारियोंमें औसतन रैयत आपको फी बीघा जिरात जमीनके रु० २४-५-३ दे रही है। सबसे अधिक रकम जो वसूली जाती है फी बीघा रु० ९१-७-३ और सबसे कम रु० ७-८-० है। संयोगसे मैंने यह भी देखा कि जहाँ २७ बीघेकी काश्त जमीन आपको रु० ५९-१३-६ देती है, वहाँ २७ बीघे जिरात जमीन आपको रु०६५९-७-० देती है। ऐसा लगता है कि ज्यादातर रैयतके पास एक बीघा जमीन या जिरात जमीन भी नहीं है। दरें काश्तके क्षेत्रके अनुसार कमोबेश निश्चित की गई हैं, न कि जिरातकी किस्मके अनुसार। यहाँ तक कि वे डेढ़ रुपया फी बीघा काश्तके लिए देते हैं जो जिरातके प्रति कठ्ठा [४] ६ आनेसे लेकर १२ आने तक अतिरिक्त पड़ता है। और ऐसा प्रतीत होता है कि जिरातके कठ्ठे, काश्तके बीघोंसे भिन्न हैं और किसी भी हालतमें एक बीघेमें ३ कठ्ठसे ज्यादा नहीं होते। औसतन् ५० ग्राम निवासियोंको १३ कठ्ठे फी बीघेका हिसाब पड़ता है। मेरी रायमें यह बात श्री बर्कलेके विचारके अनुरूप ही है। बल्कि जहाँ रैयतके इस विचारके अनुरूप है कि जिरातका समझौता तिन-कठियाका ही दूसरा रूप है और वह इसलिए बनाया गया कि जब नीलके भाव गिरें तो कम्पनियोंका घाटा पूरा हो जाये। रैयत इस बातको जोर देकर कहती है कि

 
  1. १. जमींदारको वह जमीन जिसमें वह खास पैदावार कराता था।
  2. २. जे० बर्कले इन कम्पनियोंके मालिक थे।
  3. ३. डब्ल्यू० आर० गॉर्ले, बंगालके कृषि निदेशक और बेतियाके पूर्ववर्ती एस० डी० ओ०; इन्होंने १९०८ में बंगालके गवर्नरके आदेशानुसार चम्पारनमें नीलकी खेतीके मामलोंकी जाँच करके अगले वर्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की थीं।
  4. ४. बिस्वाँ, बीघेका बीसवाँ भाग।