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प्रतिवेदन: चम्पारनके किसानोंकी हालत के बारेमें

स्थितिकी सहायतासे उन्होंने इन पुराने रिवाजोंको एक शास्त्र ही बना डाला है। नतीजा यह है कि यदि सरकारने उनकी थोड़ी-बहुत रक्षा न की होती तो किसान अन्यायोंके इस समुद्रमें डूब गये होते; उन्हें उसके ऊपर सिर उठानेका भी अवकाश न मिलता। लेकिन सरकारसे किसानोंको जो रक्षा मिलती है वह बहुत कम होती है; दूसरे उसकी चाल बहुत धीमी होती है और अकसर इतनी देरसे मिलती है कि उससे उठाये जा सकनेवाले लाभका समय ही बीत चुकता है।

यह सही है कि इस प्रतिवेदनमें जिन मामलोंका जिक्र हुआ है, उनमें से कुछके बारेमें सरकार बन्दोबस्त-(सैटिलमेंट) अधिकारीकी रिपोर्टकी राह देख रही है। लेकिन जब किसान ऊपर वर्णित अत्याचारोंके बोझके तले कराह रहे हैं, उस समय इस सारी परिस्थितिकी जाँच बन्दोबस्त अधिकारीसे करवानेका तरीका भारी-भरकम और इसलिए बेढंगा है। उसके लिए तो ये सारी शिकायतें बन्दोबस्तके अपने विशाल कार्यका एक अंग मात्र हैं। इसके सिवा, उसकी जाँचमें ऊपर उठाये हुए सारे मुद्दे आते भी नहीं। फिर, ये सारी शिकायतें ऐसी हैं जिनके बारेमें कोई विवाद शायद ही हो सके और वे इतनी गम्भीर हैं कि उनसे तुरन्त राहत मिलनी चाहिए।

तावान और शरहबेशी साटे और अबवाब जबरदस्ती लिए गये हैं, इससे कोई इनकार तो कर ही नहीं सकता। और मेरा खयाल है, यह भी नहीं कहा जायेगा कि इन चीजोंके बारेमें किसानोंको कानूनका आश्रय लेनेसे पूरी रक्षा मिल सकती है। हमारा कहना यह है कि जहां जबरदस्तीकी यह वसूली इतने व्यापक पैमानेपर की जा रही है वहाँ किसानोंको अदालतोंसे पूरी रक्षा नहीं मिल सकती और सर्वोच्च जमींदारकी हैसियतसे सरकारको अपनी ओरसे प्रशासनिक सुरक्षा देनी ही चाहिए; उसके बिना काम चल ही नहीं सकता।

अन्यायोंकी दो श्रेणियाँ हैं। एक तो वे अन्याय जो हो चुके और अब मेटे नहीं जा सकते और दूसरे वे जो अभी जारी हैं। इन दूसरे प्रकारके अन्यायोंको एकदम बन्द किया जाना चाहिए और पुराने अन्यायोंकी――जो तावान और अबवाब वसूल किये जा चुके हैं और शरहबेशीका जो पैसा दिया जा चुका है, उनकी छोटी-सी जाँच होनी चाहिए। डोंड़ी पिटवाकर और पर्चे बाँटकर किसानोंको बता दिया जाना चाहिए कि वे अबवाब, तावान और शरबेशीका पैसा देनेके लिए न केवल बाध्य नहीं हैं बल्कि उन्हें वह नहीं देना चाहिए और अगर कोई उनसे यह पैसा वसूल करनेकी कोशिश करे तो सरकार उनकी रक्षा करेगी। उन्हें यह भी बताया जाना चाहिए कि वे अपने जमींदारोंकी वैयक्तिक टहल करनेके लिए बाध्य नहीं हैं, अपनी सेवाएँ वे जहाँ चाहें, जिसे चाहें उसे बेच सकते हैं और अगर उनकी इच्छा न हो और इसमें उन्हें अपना लाभ न दिखे तो वे नील, गन्ना या कोई भी दूसरी फसल उगानेके लिए भी बाध्य नहीं हैं। बेतिया राज द्वारा फैक्टरियोंको दिये गये पट्टे उनकी अवधि बीत जानेपर तबतक दुबारा नहीं दिये जाने चाहिए जबतक वे अपने अनुचित कार्योंको सुधार नहीं लेतीं और जब ये दुबारा दिये जायें तो उनमें किसानोंके अधिकारोंकी रक्षाकी व्यवस्था होनी चाहिए।

अब दस्तूरीका सवाल लें: जाहिर है कि जिम्मेदारीकी जगहोंमें मौजूदा लोगोंकी अपेक्षा ज्यादा शिक्षित आदमी लिये जाने चाहिए और उन्हें ज्यादा अच्छा वेतन दिया