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प्रतिवेदन: चम्पारनके किसानोंकी हालतके बारेमें

 

मिला है। लेकिन जब कृत्रिम नील निकली और खेतीसे उत्पन्न स्थानीय नीलकी कीमत गिर गई तो जमींदारोंने नीलके सट्टोंको[१] रद करना चाहा। इसलिए उन्होंने अपना नुकसान किसानोंके सर थोपनेकी तरकीब ढूँढ़ निकाली। नीलकी खेती करानेका अपना अधिकार छोड़नेके एवजमें उन्होंने पट्टेदार किसानोंसे तावान वसूल किया जो प्रति बीघा रु० १०० तक था। किसानोंका कहना है कि तावानकी यह वसूली जबरदस्ती की गई। जहाँ किसान नगद पैसा नहीं दे सके वहाँ उन्होंने रकम किस्तोंमें चुकानेके लिए हैंड-नोट या रहन-नामा लिख दिया और १२ प्रतिशत वार्षिक ब्याज देना कबूल किया। इन पत्रकोंमें दर्ज बकाया रकमको तावान नहीं कहा गया है, बल्कि उसे किसानको उसके किसी कामके लिए दिया गया कर्ज बताय गया है।

मुकर्ररी जमीनोंमें नुकसान वसूल करनेका एक नया तरीका अपनाया गया है: यह तरीका है शरहबेशी सट्टोंका। शरहबेशी यानी नीलकी खेती [का हक छोड़ने] के एवजमें लगानमें की गई बढ़ोतरी। सर्वेकी रिपोर्टके अनुसार ५,९५५ काश्तकारोंपर――प्रभावित किसानोंकी संख्या इससे कहीं ज्यादा है ――यह बढ़ोतरीकी रकम रु० ३१,०६२ है। बढ़ोतरी होनेके पहले वे लगानके रूपमें रु० ५३,८६५ देते थे। किसानोंका कहना है कि ये सट्टे उनसे जबरदस्ती लिखाये गये हैं। यह कदापि नहीं माना जा सकता कि नीलकी खेती करनेकी बाध्यतासे मात्र एक अस्थायी अवधिके लिए मुक्त होनेके एवजमें किसानोंने इस स्थायी और अतिशय बढ़ोतरीको स्वेच्छासे स्वीकारकर लिया होगा। वे तो इस मुक्तिके लिए कबसे जूझ रहे थे और अब उम्मीद कर रहे थे कि वह उन्हें जल्दी ही किसी भी समय मिल जायेगी।

जहाँ तावान नहीं वसूल किया गया है, वहाँ फैक्टरियोंने किसानोंको तिन-कठियाकी पद्धतिके तहत जई, ईख या ऐसी ही कोई दूसरी फसल उगानेके लिए मजबूर किया है।

इस तिन कठिया पद्धतिके तहत किसान जमींदारोंकी बताई हुई फसलें उगानेके लिए अपनी सर्वोत्तम जमीन देनेके लिए बाध्य हुए हैं; कई बार तो इसके लिए उन्हें अपने घरके ठीक सामनेकी जमीन देना पड़ी है; इसके लिए उन्हें अपने समय और शक्तिका सर्वोत्तम अंश भी देना पड़ा है। अपनी फसलें उगानेके लिए――जिनपर कि उसकी जीविका निर्भर है उसे बहुत ही कम समय रह जाता है।

किसानोंसे फैक्टरियोंको किरायेपर गाड़ियाँ देनेके लिए भी जबरदस्ती साटे कराये गये हैं; यह किराया इतना कम होता है कि इस काममें किसानोंको जो पैसा खर्च करना पड़ता है वह भी उससे पूरा वसूल नहीं होता।

किसानोंसे जबरदस्ती काम लिया जाता है और उन्हें पर्याप्त मजदूरी भी नहीं दी जाती। अल्पवयस्क लड़कों तक से उनकी इच्छाके विरुद्ध काम कराया जाता है।

फैक्टरियाँ किसानोंके हल उठवा लेती हैं और उन्हें अपनी जमीनें जोतनेके लिए लगातार कई दिनों तक और उस समय रोके रखती हैं जब कि किसानोंको भी

  1. १. या साटा-लिखित करार।