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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शालीन सहायक भी चुनूँगा। मेरे सामने जो कठिन कार्य उपस्थित है, उसे देखते हुए मैं इस बातको अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे उसमें इन योग्य, सच्चे और साखवाले व्यक्तियोंका सहकार प्राप्त है। मुझे तो ऐसा ही लगता है कि उन्हें छोड़ देना अपने कामको ही छोड़ देनेके बराबर होगा। सज्जनोचित व्यवहारका यह तकाजा है कि मैं उनकी सहायताका त्याग तबतक न करूँ जबतक यह सिद्ध न हो जाये कि उन्होंने कोई अनुचित कार्य किया है और मुझे उसका विश्वास न हो जाये। मुझे ऐसी कोई आशंका नहीं है कि मेरी अथवा मेरे मित्रोंकी उपस्थितिसे कोई ‘खतरनाक स्थिति’ पैदा हो सकती है। खतरा अगर कहीं है तो वह उन कारणोंमें है जो गोरे जमींदारों और किसानोंके बीच आजके तनावपूर्ण सम्बन्धोंके लिए जिम्मेदार हैं। और अगर ये कारण दूर कर दिये जाते हैं तो जहाँतक किसानोंका सवाल है, चम्पारनमें, किसी ‘खतरनाक स्थिति’ के पैदा होने का डर रखनेका कोई कारण नहीं है।

अस्तु, इस प्रतिवेदनके तात्कालिक उद्देश्यपर आयें। अभीतक हम सावधानीसे पूरी जिरह करनेके बाद करीब चार हजार किसानोंके बयान ले चुके हैं। हम कई गाँवोंमें घूम चुके हैं और अदालतों द्वारा दिये गये अनेक फैसलोंका अध्ययन कर चुके हैं। इस प्रकार हम जो जाँच कर पाये हैं उसके आधारपर, मेरी रायमें, निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

चम्पारन जिलेमें काम करनेवाली इन फैक्टरियों या पेढ़ियोंको दो वर्गोंमें बाँटा जा सकता है――(१) वे जिनके पास नीलकी खेती नहीं थी, और (२) वे जिनके पास नीलकी खेती थी:

(१) जिन पेढ़ियोंने नीलकी खेती कभी नहीं कराई उन्होंने कई अबवाब वसूल किये हैं (अबवाब किसानोंसे वसूल किये जानेवाले एक प्रकारके टैक्स हैं जिन्हें इस इलाके में अलग-अलग जगहोंमें कई अलग-अलग नामोंसे पुकारा जाता है) और इस तरह जो रकम वसूल की गयी है वह कमसे-कम किसानों द्वारा दिये जानेवाले लगानके बराबर तो है ही। इस प्रकारके कर वसूल करना गैर-कानूनी ठहराया जा चुका है, किन्तु वह बन्द नहीं हुआ है।
(२) नीलकी खेती करानेवाली फैक्टरियाँ नीलकी खेती या तो ‘तिन-कठिया’ या ‘खुश्की’ पद्धतिके अन्तर्गत कराती रही हैं। तिन-कठियाकी पद्धति ज्यादा प्रचलित रही है और किसानोंको सबसे ज्यादा तकलीफ उसीसे हुई है। उसका रूप समयके साथ बदलता रहा है। उसका आरम्भ नीलसे हुआ था किन्तु धीरे-धीरे उसने सभी फसलोंको अपनी लपेटमें ले लिया है। वह किसानकी जमीनसे सम्बद्ध ऐसी बाध्यता है जिसके कारण किसानको जमींदारकी मर्जीके अनुसार अपनी जमीनके ३/२० हिस्सेपर कोई खास फसल उगानी पड़ती है और इसके एवजमें उसे एक निर्दिष्ट मुआवजा दिया जाता है। इस प्रथाका कोई कानूनी औचित्य नहीं दिखाई पड़ता। किसानोंने इनका सदा विरोध किया है लेकिन उन्हें बल प्रयोगके आगे झुकना पड़ा है। उन्हें अपनी सेवाओंके लिए पर्याप्त मुआवजा भी नहीं