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२८१. पत्र: जे० बी० कृपलानीको

मोतीहारी
अप्रैल १७, [१९१७]

प्रिय मित्र,[१]

तुम्हारा प्रेम तुम्हारे नेत्रों, तुम्हारी भावभंगी और चाल-ढालसे झलक रहा था। ईश्वरसे प्रार्थना है कि मैं तुम्हारे इस प्रगाढ़ प्रेमके योग्य बनूँ। इसमें सन्देह नहीं कि तुम मदद करना चाहते हो। तुम अपनी इच्छाके अनुसार कोई एक चीज चुन लो। अहमदाबाद चले जाओ और वहाँ प्रयोगात्मक विद्यालयमें काम करने लगो या यहाँ आ जाओ और जेल जानेका खतरा उठाकर काममें जुट जाओ। परन्तु यह सब उसी दशामें जब में जेल भेज दिया जाऊँ। यदि तुम यह चाहते हो कि तुम्हारे इसी प्रान्तमें होनेके कारण मैं तुम्हारा कार्यक्रम निश्चित करूँ तो मैं कहूँगा कि तुम्हारा कर्त्तव्य यही है कि जबतक रैयत इन्सानकी तरह जीनेके लिए स्वतन्त्र न हो जाये तबतक यहाँसे न हटो। मेरे लिए तो चम्पारन मेरा घर ही हो गया है। जो पूछताछ प्रतिदिन की जा रही है उससे मेरी यह धारणा दृढ़ होती जा रही है कि कई बातोंमें यहाँ की स्थिति फीजीसे भी बदतर है।

मेरे द्वारा अदालतका अपमान किये जानेका सम्मन मुझे अभीतक नहीं मिला है।

हृदयसे तुम्हारा,
मो० क० गांधी

प्रोफेसर मलकानीको मुझे अभी आँकड़े देने हैं।

मो० क० गांधी

हिन्दीके नियमोंकी जो एक प्रति मेरे पास थी, वह मैंने ट्रेनिंग स्कूलके अथवा अन्य किसी स्कूलके शिक्षकको उनसे यह वचन लेकर दे दी थी कि वे उसे मुझे लौटा देंगे। उसका पता लगाकर अहमदाबाद भेज देना।

मो० क० गांधी

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी पत्र (जी० एन० २८२२) की फोटो-नकलसे।

 
  1. १. आचार्य जे० बी० कृपलानी; देखिए “पत्रः काका कालेलकरको”, २-५-१९१७।