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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

मेरा हेतु राष्ट्र-सेवा है और वह भी उसी हदतक जिस हदतक वह मानवीय हितसे मेल खाती हो। मेरा खयाल है कि मुझे कैंसरे-हिन्द स्वर्ण पदक इसी कारण दिया गया था कि दक्षिण आफ्रिकामें किया गया मेरा कार्य मानव-हितका कार्य समझा गया। यदि मेरे मानवतावादी उद्देश्योंमें शंका की जाती है तो मैं इस पदकको रखनेका पात्र नहीं हूँ और इसलिए अपने लोगोंको उक्त पदकको वापस आपको भेज देनेको लिख रहा हूँ;[१] और जिस दिन मेरे उद्देश्यपर शंका न की जायेगी तब यदि मुझे वह लौटाया जायेगा तो मैं उसे फिर स्वीकार करनेमें प्रतिष्ठाका अनुभव करूँगा।

स्वयं इस प्रश्नके सम्बन्धमें, जहाँतक मेरे सामने प्रस्तुत किये गये प्रमाणोंकी मैं जाँच कर सका हूँ, उनसे यह पता चलता है कि जमींदारोंने काश्तकारोंको नुकसान पहुँचाकर स्वयं धनी बननेमें दीवानी और फौजदारी दोनों कानूनी अदालतों तथा गैर-कानूनी ताकतका सफल प्रयोग किया है। बेचारे काश्तकार आतंकसे दबे हुए दिन गुजार रहे हैं, और उनकी सम्पत्ति, उनके शरीर और उनके मन, सब जमींदारोंके पैरों तले कुचले जा रहे हैं। एक व्यक्तिने मुझसे बड़ी ही सजीव और मार्मिक भाषामें कहा: “हम तो सरकारकी नहीं, इन गोरे जमींदारोंकी प्रजा हैं। थाना कहीं नहीं है; जमींदार हरएक जगह हैं। जो वे चाहते हैं, हम वही लेते हैं; जो वे रखने देते हैं, हम वही रखते हैं।” मुझे आशा थी कि मेरे मनपर जो प्रभाव पड़ा है, वह अधिक गहरी छानबीनके बाद कुछ हलका हो जायेगा। यदि मुझे स्वतन्त्र रहने दिया जाता तो मैं अपनी जाँच पूरी करके उसका परिणाम अधिकारियोंके सम्मुखं प्रस्तुत कर देता। मेरी तो अभिलाषा है कि परमश्रेष्ठ वाइसराय महोदय इस मामलेकी गम्भीरताको समझते हुए स्वतन्त्र जाँच करवायें। स्थानीय अधिकारीगण इस बातको स्वीकार करते हैं कि वे एक बहुत ही खतरनाक बारूदी सुरंगपर बैठे हुए हैं और फिर भी वे बन्दोबस्त-अधिकारीकी धीमी जाँचसे किसी तरह अपने मनको सन्तुष्ट कर लेते हैं; और यहाँ मेरी मौजूदगी बरदाश्त नहीं कर सकते। सब कुछ इस बातपर निर्भर करता है कि इस मामले में कितनी शीघ्रता बरती जाती है और जाँच समितिमें कितने उपयुक्त सदस्य चुने जाते हैं। काश्तकारोंको कमसे-कम इतना पानेका अधिकार तो है ही। बड़ी कृपा हो यदि आप यह पत्र वाइसरॉय महोदयकी सेवामें प्रस्तुत करके मेरी ओरसे इस बातके लिए क्षमा याचना कर दें कि उनके अनेक आवश्यक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी मैंने उन्हें इतना लम्बा पत्र लिखकर कष्ट दिया। लेकिन मामला इतना जरूरी है कि इसे लिखे बिना चारा नहीं था।

आपका आदि,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

मूलकी प्रतिलिपि (सी० डब्ल्यू० ७५९६) से।

सौजन्य: एच० एस० एल० पोलक

  1. १. देखिए “ पत्र: मगनलाल गांधीको”, १६-४-१९१७।