२६७. पत्र: मगनलाल गांधीको
बाँकीपुर
चैत्र बदी ३, संवत् १९७३
मंगलवार [अप्रैल १०, १९१७]
वहाँसे दो पत्र एक ही दिन मिले। एकका वजन ज्यादा था, इसलिए उसका जुर्माना देना पड़ा। चि० नारणदासका हिसाबका चिट्ठा वापस भेज रहा हूँ। इसे देखकर तुम जान जाओगे कि जमाखातेकी रकमें ठीक हैं या नहीं। यह स्पष्ट है कि नारणदासके नामे डाली हुई सब रकमें उसके खाते जमा करके पोलकके नामे टीपनी हैं।
प्रभुदास कलकत्तेमें रह गया है। उसने बताया कि वहाँ उसका मन लग गया है। यह ठीक ही हुआ कि मैं उसे यहाँ नहीं लाया। जो व्यक्ति [१] मुझे यहाँ लाया है, कुछ नहीं जानता। उसने मुझे एक अनजानी जगहमें ला-पटका है। घरका मालिक कहीं गया हुआ है और नौकर ऐसा समझते हैं कि अवश्य ही हम दोनों भिखारी होंगे। वे हमें घरके पाखानेका भी उपयोग नहीं करने देते। खाने-पीनेकी तो बात ही क्या? मैं सोच-समझकर अपनी जरूरतकी चीजें साथ रखता हूँ, इसीलिए बेफिक्र रह सका हूँ। मैंने अपमानके बहुत घूँट पिये हैं, इसलिए यहाँकी अटपटी स्थितिसे कोई दुःख नहीं होता। यदि यही स्थिति रही तो चम्पारन जाना नहीं हो सकेगा। मार्गदर्शक कोई मदद कर सकेगा, ऐसा दिखाई नहीं देता। और मैं स्वयं अपना मार्ग खोज सकूं, ऐसी स्थिति नहीं है। इस दशामें मैं अपना पता तुम्हें नहीं दे सकता। यदि मैं किसीको वहाँसे मददके लिए लाया होता तो वह भी मुझपर एक भार ही होता। अपना बोझा उठानेके अलावा मुझे उसका बोझा भी उठाना पड़ता। मैं सिर्फ अपनी अनिश्चित स्थितिकी बात-भर बता रहा हूँ; तुम्हें कोई चिन्ता करनेकी जरूरत नहीं। क्योंकि मैं एकान्तका आनन्द तो उठा ही रहा हूँ। घर ठीक है। नहाने-धोनेकी सुविधा है; इसलिए शरीरकी जरूरत पूरी हो रही है। आत्माका विकास तो हो ही रहा है।
बापूके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५७१०) से।
सौजन्य: राधाबेन चौधरी
- ↑ १. राजकुमार शुक्ल।