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२२९. भाषण: अखिल भारतीय एक-भाषा व एक-लिपि सम्मेलन, लखनऊमें[१]

दिसम्बर २९, १९१६

मुझे जो कुछ कहना है वह मैं फिर कहूँगा। इस समय मैंने वक्ताओंके उपदेशसे जो-कुछ सीखा है केवल वही कहूँगा। मैं गुजरातसे आता हूँ। मेरी हिन्दी टूटी-फूटी है। मैं आप सब भाइयोंसे टूटी-फूटी हिन्दी ही में बोलता हूँ क्योंकि थोड़ी अंग्रेजी बोलनेमें भी मुझे ऐसा मालूम पड़ता है मानो मुझे इससे पाप लगता है। मुझे आपको हिन्दीका गौरव बतानेकी जरूरत नहीं है। आप लोगोंकी मुझसे हिन्दीका गौरव जाननेकी इच्छा ऐसी ही है जैसे कोई आदमी गंगामें स्नान करता रहे और कहे कि गंगाजी इधर आओ। यदिकोई आदमी राजपूतानेमें रहकर ‘गंगाजी इधर आओ’ यह प्रार्थना करता तो उचित भी था। आप लोग हिन्दी पढ़ें और नागरी सीखें, यह आपसे, आपके सम्मेलनसे कहना मेरा काम नहीं है। यदि मुसलमानोंसे कोई कहे कि उर्दू पढ़ना-लिखना सीख लो तो यह भी ऐसी ही व्यर्थ बात है। आप लोग कहते हैं कि मैं बोलनेवाला नहीं, काम करने-वाला हूँ, तो मैं जो कहता हूँ, मेरा कहना मानिये। सज्जनो, देखिए, क्रिश्चियन लिटरेचर डिपो ऐंड बाइविल सोसाइटी सारे विश्वमें घूम रही है; वह अपनी पुस्तकोंका सारे विश्वमें प्रचार कर रही है, सब भाषाओंमें उनका अनुवाद करके आवश्यक स्थानोंमें वितरण करती है। यहाँतक कि दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाले मजदूरों और जंगली जातियोंको

भी उनकी भाषाओं में बाइबिल आदि देती है। इस कार्यमें वह करोड़ों रुपया खर्च करती है। वे लोग हमारी तरह खाली सम्मेलन नहीं करते। हाँ, कभी-कभी सम्मेलन करते हैं पर केवल रुपया इकट्ठा करने या अपने कामकी रिपोर्ट आदि सुनानेके लिए। आज हिन्दी सिखानेवाले और काम करनेवाले लोग होते तो मद्रासी भी हिन्दी जानते होते। खाली सम्मेलन नहीं, किन्तु काम चाहिए जैसे क्रिश्चियन लिटरेचर डिपो ऐंड बाइबिल सोसाइटी कर रही है। हर काममें पैसा चाहिए। पर पैसेकी कमी नहीं है। कमी है काम करनेवालोंकी। यदि कार्यकर्त्ता हों तो गुजरात, मद्रास, दक्षिण सब जगह लोग हिन्दी सीख सकते हैं। हिन्दीमें नई-नई पुस्तकें बनें, अनुवाद हों, बाहर जाकर लोगोंको पढ़ाया जाये, और जो लोग यहाँ आयें उन्हें पढ़ाया जाये। यदि दक्षिण या गुजरात आदिमें हिन्दी पढ़ाने और उसका प्रचार करने आदिके लिए आदमी भेजें तो मुफ्त नहीं पर उचित रूपसे निर्वाह करनेके लिए उन्हें वेतन मिलेगा। पहले तो ऋषियोंके समयमें भारतवर्ष में बड़ा आत्मत्याग होता था, विद्या मुफ्त ही दी जाती थी। में हिन्दी सीखना चाहता था; अहमदाबादमें हिन्दी सिखानेवाला नहीं मिला। एक गुजराती सज्जनसे, जो टूटी-फूटी हिन्दी जानते थे और काशीमें १५-२० वर्ष रहे थे, मैंने हिन्दी सीखी। सम्मेलन आदि संस्थाएँ कार्यकर्त्ता बाहर भेजें तो बहुतसे लोग हिन्दी सीख

  1. १. गांधीजी सम्मेलनके अध्यक्ष थे।