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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उन्नति वास्तविक उन्नतिके विपरीत बैठती है?” अध्यक्षके द्वारा श्री गांधीका परिचय दिये जाने के पश्चात् श्री गांधीका व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। वह इस प्रकार है:

प्रस्तुत विषयपर आप लोगोंके समक्ष बोलनेके लिए आज जब मैंने पं० कपिलदेव मालवीयका निमन्त्रण स्वीकार किया उस समय मेरा ध्यान अपनी सीमाओंकी ओर गया और मुझे अपनी कमियोंपर खेद भी हुआ। आपकी समिति [इकॉनमिक सोसाइटी] अर्थशास्त्रीय विषयोंके अध्ययनसे सम्बन्ध रखती है। और आपने अपनी कार्यक्रम-पत्रिकामें इस वर्ष तथा अगले वर्षके लिए नियत किये गये विषयोंपर भाषण देनेके निमित्त प्रख्यात विशेषज्ञोंको चुन रखा है। उनमें केवल मैं ही ऐसा आदमी हूँ जिसमें सौंपे हुए कार्यको सुचारु रूपसे निबाहनेकी क्षमता नहीं है। सच कहूँ तो वास्तवमें आप लोग अर्थशास्त्रको जिस रूपमें जानते हैं उस रूपमें इस विषयका मेरा ज्ञान बहुत ही स्वल्प है। अभी एक दिन शामको मैं एक मित्रके साथ भोजन कर रहा था। तभी उसने मेरे खब्तोंके बारेमें सवालोंकी झड़ी लगा दी। चूँकि मैंने स्वेच्छासे ही अपनेको उसकी जिरहका शिकार बन जाने दिया, उसे बड़ी आसानीसे यह मालूम हो गया कि उसकी समझमें में जिन विषयोंपर किसी ज्ञान-बन्धुकी तरह बोलता-बताता हूँ उनमें मैं बिलकुल कोरा हूँ। और मुझे अपने अज्ञानकी खबर नहीं है। मेरा खयाल है कि जब उसे यह मालूम हुआ कि मैंने मिल, मार्शल, एडम स्मिथ जैसे विख्यात अर्थशास्त्रियोंके ग्रन्थोंका अवलोकन तक नहीं किया है तब उसे बड़ा अचम्भा हुआ और उसे मेरे प्रति झुंझलाहट भी हुई। हताश होकर उसने अन्तमें मुझे यही सलाह दी कि मैं अर्थशास्त्र सम्बन्धी मामलोंपर प्रयोग करने और इस प्रकार जनसाधारणके समय और धनका दुरुपयोग करनेके पूर्व उपरोक्त लेखकोंकी कृतियोंको पढ़ जाऊँ। उस बेचारेको यह मालूम न था कि मैं ऐसा व्यक्ति हूँ कि उन पुस्तकोंको पढ़ जानेपर भी मूढ़का-मूढ़ ही रहूँगा। मैं अपने उन मित्रोंके बलपर जो मुझमें विश्वास रखते हैं अपने प्रयोग करता ही रहता हूँ, क्योंकि जीवनमें कभी ऐसा अवसर भी आता है जब हमें कुछ बातोंके बारेमें बाहरी प्रमाणकी आवश्यकता नहीं रह जाती। हमारे अन्तरात्मासे यह ध्वनि निकलती है कि “तुम ठीक रास्ते पर हो, दायें-बायें मुड़े बिना सीधे चलते चले जाओ।" इस प्रकारकी सहायताके सहारे हम धीमे ही सही आगेकी ओर निश्चित रूपसे निरन्तर बढ़ते जाते हैं; मेरी यही स्थिति है। यह स्थिति मेरे लिए तो सन्तोषजनक हो सकती है; परन्तु आपकी जैसी संस्थाओंकी आवश्यकताएँ उससे किसी भी प्रकार पूरी नहीं हो सकतीं। इस सबके होते हुए भी पं० कपिलदेव मालवीयको मेरा नाम व्याख्यान-दाताओंकी सूचीमें न रखनेके लिए समझाना-बुझाना व्यर्थ था। मैं जानता था कि वे आप लोगोंके समक्ष किसी-न-किसी दिन मेरा भाषण करानेपर तुले हुए हैं। शायद मेरे आजके भाषणको सुनकर आप मनमें यही सोचेंगे कि चलो अच्छा हुआ रोज-ब-रोज एक ही तरहके सिद्धान्तोंके प्रतिपादन और उनकी बारीकियोंके निरूपणसे एक दिन तो विश्राम मिला। बहुत दिनों तक लगातार स्वादिष्ट भोजन करते रहनेपर बीच-बीचमें लंघन करना प्राय: आवश्यक हो जाया करता है। जो बात शरीरके लिए कही जा सकती है वही मस्तिष्कके लिए भी। और यदि आज आपके मस्तिष्कको बढ़िया-बढ़िया व्यंजन न मिलें और वह भूखा ही रह जाये तो,