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हिन्दुओं में जाति प्रथा

सकै। इन स्कूलोंमें छात्रोंके खेल-कूदके अन्तर्गत खेतोंमें हल चलाना आदि होना चाहिए। यह खयाल बिलकुल गलत है कि बालकों और युवकोंके जीवन फुटबाल और क्रिकेटके बिना नीरस हो जायेंगे। हमारे किसानोंके बालकोंको क्रिकेट खेलनेकी सुविधा नहीं मिलती; किन्तु फिर भी उनके जीवन निरानन्द या अलमस्तीसे खाली हों, ऐसा नहीं है। शिक्षण-पद्धतिमें ऐसा परिवर्तन कोई कठिन बात नहीं है। यदि ऐसा लोकमत बन जाये तो सरकारको यह परिवर्तन करना ही होगा। ऐसा लोकमत तैयार होनेसे पूर्व जिन लोगोंको ऊपर बताई गई शिक्षा पद्धति पसन्द हो उन्हें प्रयोग करके देखना चाहिए। यदि लोग उनके प्रयत्नका शुभ परिणाम देखेंगे तो वे अपने आप ही वैसा करनेकी इच्छा करेंगे। मेरी समझ में ऐसे प्रयोगोंके लिए ज्यादा खर्चकी जरूरत नहीं है। किन्तु मैंने यह लेख व्यावसायिक दृष्टिसे नहीं लिखा है। इसे लिखनेका मुख्य हेतु यह है कि इस लेखको जो भी पढ़ें वे सच्ची शिक्षा क्या है, यह खोज करें और यदि इस खोजमें इस लेखसे कुछ सहायता मिले तो इसे लिखनेका प्रयत्न सफल माना जायेगा।

[गुजराती से]
समालोचक, अक्तूबर १९१६; तथा प्रॉब्लम ऑफ एजुकेशन से भी।

२१८. हिन्दुओंमें जाति-प्रथा[१]

मेरे खयालसे हिन्दू-समाज-रूपी इमारत जो अवतक खड़ी रह सकी है, इसका कारण जाति-प्रथाकी नींवपर उसका रचा जाना है। सर विलियम हंटरने अपनी पुस्तक ‘भारतका इतिहास’ में लिखा है कि हमें भारत में जाति-प्रथा प्रचलित होनेसे ही निर्धनोंका कानून (पॉपर्स लॉ) नहीं बनाना पड़ा है। यह विचार मुझे ठीक जान पड़ता है। जाति-प्रथामें स्वराज्यका बीज निहित है। भिन्न-भिन्न जातियाँ सेनाके डिवीजनोंकी भाँति हैं।सेनानायक प्रत्येक सैनिकको नहीं पहचानता। पर उसके डिवीजनके मुख्य अधिकारीके द्वारा वह उससे लाभ ले लेता है, इसी तरह जाति प्रथाको साधन बनाकर हम समाज-सुधारका कार्य सुगमतासे कर सकते हैं और अपने धार्मिक, व्यावहारिक, नैतिक और राजनीतिक चक्रोंको जिस प्रकार चाहें प्रवर्तित कर सकते हैं।

जाति-प्रथा नितान्त स्वाभाविक प्रथा है। इस देशमें उसे धार्मिक स्वरूप दे दिया गया है; अन्य देशोंमें उसकी उपयोगिता अच्छी तरह ध्यान में नहीं आई। इससे वहाँ उक्त प्रथाका स्थूल रूप ही कायम रहा और फलतः उससे अधिक लाभ नहीं पहुँचा। मेरे ऐसे विचारोंके कारण जाति-प्रथाका मूलोच्छेद करनेके लिए जो प्रयत्न किया जा रहा है उसका में विरोधी हूँ।

परन्तु जाति-प्रथामें जो दोष दीख पड़ते हैं वे जरूर दूर किये जाने चाहिए। ऐसा करनेके लिए हमें पहले जाति-प्रथाके वास्तविक रूपका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। मैं

  1. १. यह लेख मूलत: एक मराठी मासिक पत्रिका भारत सेवकके अक्तूबर, १९१६ के अंक में प्रकाशित हुआ था।