पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/३३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०१
आधुनिक शिक्षा

हमारे युवकोंको घरमें माँ-बापसे और अपने आस-पासके वातावरणमें से जिस प्रकारका ज्ञान मिलता है, स्कूलोंमें उससे उलटा मिलता है। स्कूलोंमें आचार-व्यवहार हमारे घरोंके आचार-व्यवहारसे प्रायः भिन्न ही होता है। हमारी पाठ्य-पुस्तकोंमें दी गई शिक्षा तो पुस्तकोंमें छपा हुआ बेंगन ही समझिए, जिसका हम अपने सांसारिक व्यवहारमें कोई उपयोग नहीं कर सकते। हमें स्कूलोंमें क्या पढ़ाते हैं, इस सम्बन्धमें हमारे माँ-बाप उदासीन रहते हैं। हम मानते हैं कि बहुत-सा अध्ययन केवल परीक्षा देनेके उद्देश्यसे किया गया कठिन श्रम ही होता है। हम परीक्षा देनेके बाद यथासम्भव जल्दीसे-जल्दी उसे भूल जानेका प्रयत्न करते हैं। कुछ अंग्रेज हमपर यह आरोप लगाते हैं कि हम लोग नकलची हैं। यह बात नितान्त अर्थ-रहित नहीं है। एक अंग्रेज आलोचकने तो हमें सोख्ता कागजकी अशिष्ट उपमा दी है। उसका खयाल है कि जैसे सोख्ता कागज फालतू स्याहीको सोख लेता है वैसे ही हम उनकी सभ्यताकी अनावश्यक बातों अथवा उसके दोषोंको ही ग्रहण करते हैं। हमें मानना चाहिए कि कुछ अंशोंमें हमारी वैसी ही दशा हुई है। इस दशाके कारणोंपर विचार करते हुए मुझे तो ऐसा लगा है कि अंग्रेजीके माध्यमसे शिक्षा देना ही मूल दोष है। मैट्रिक तक की शिक्षा समाप्त करने में सामान्यतः बारह वर्ष लगते हैं। इन वर्षोंमें हमें अत्यल्प सामान्य ज्ञान मिलता है। किन्तु हमारा मुख्य प्रयत्न उस ज्ञानका समन्वय अपने कार्यसे करने या उसको अपने व्यवहारमें लानेका नहीं होता, बल्कि किसी तरह अंग्रेजी भाषापर अधिकार प्राप्त करनेका होता है। विद्वानोंका मत यह है कि यदि सब लोगोंको मैट्रिक तक का ज्ञान मातृ-भाषाके माध्यमसे दिया जाये तो कमसे-कम पाँच वर्ष बच जायेंगे। इस प्रकार दस हजार छात्रोंको मैट्रिक तक पढ़ानेमें लोगोंके पचास हजार वर्षोंकी हानि हुई। यह अत्यन्त गम्भीर निष्कर्ष है। इतना ही नहीं, हम इस प्रकार अपनी भाषाओंको भिखारी बना रहे हैं। मैं प्रायः यह बात सुनता हूँ कि गुजराती भाषा समृद्ध नहीं है; मुझे यह सुनकर क्रोध आता है। गुजराती संस्कृतकी प्यारी बेटी है। यदि यह गरीब है तो इसमें भाषाका दोष नहीं है, बल्कि हम लोगोंका है जो उसके संरक्षक हैं। हमने उसकी उपेक्षा की है और उसे भुला दिया है। तब उसमें वह तेज और बल जो होना चाहिए, कहाँसे आये? हम और हमारे परिवारोंके बीच व्यवधान उत्पन्न हो गया है। हमारे माँ-बापों, अन्य कुटुम्बियों, हमारे स्त्री वर्ग और नौकर-चाकरोंके लिए, जिनके सम्पर्कमें हमें दीर्घकाल तक रहना होता है, हमारी स्कूलकी शिक्षा गुप्त धनके समान है। उन्हें उस शिक्षाका कोई लाभ नहीं मिलता। हम आसानीसे समझ सकते हैं कि जहाँ ऐसी विषम स्थिति हो वहाँ लोग कभी उन्नति नहीं कर सकते। यदि हम सोख्ता कागज न होते तो पचास वर्ष तक इस शिक्षाके मिलनेके बाद जनतामें कोई नई प्रवृत्ति तो दिखाई देती। किन्तु हम लोग अपनी जनताको पहचानते ही नहीं हैं। वह हमें सभ्य मानकर पराया देखने लगती है। और हम उसे जंगली समझकर उसका तिरस्कार करते हैं। कॉलेजमें प्राप्त होनेवाली शिक्षापर भी जब हम विचार करने लगते हैं तो देखते हैं कि उसका भी ऐसा ही परिणाम हुआ है। वहाँ भी हम एक ओर अपने अंग्रेजीके ज्ञानकी नींव मजबूत रखनेमें अपना समय बिताते हैं तथा दूसरी ओर अपनी मातृभाषाकी