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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसके परिचालनमें दिखाई पड़ता है। यह ठीक है कि महात्मा मुन्शीरामकी प्रेरणादायक उपस्थिति ही उसकी शक्तिका अधिष्ठान है, किन्तु यह संस्था सच्चे अर्थोंमें एक स्वशासित, प्रजातन्त्रीय और राष्ट्रीय संस्था है; किसी भी प्रकारकी सरकारी सहायता या आश्रयसे वह बिलकुल मुक्त है। उसका कोष कुछ लक्ष्मीपुत्रोंके दानके बलपर सम्पन्न नहीं हुआ है। तमाम गरीब लोग साल-दर-साल काँगड़ीकी यात्रा करते हैं। यथाशक्य इस राष्ट्रीय महाविद्यालयके संचालनकी दिशामें प्रसन्नतापूर्वक जो-कुछ देते हैं, यह कोष उसीसे सम्पन्न हुआ है। प्रत्येक वार्षिक उत्सवपर बहुत बड़ी संख्या में लोग यहाँ आते हैं और यहाँ उनके रहने और खाने-पीनेकी जो सुचारु व्यवस्था होती है, वह संगठनकी जबरदस्त शक्तिकी परिचायक है। सबसे अधिक आश्चर्यकी बात तो यह है कि इन आये हुए लोगोंमें लगभग १,००० आदमी, स्त्री और बच्चे होते हैं और उनका प्रबन्ध एक भी पुलिसके सिपाही या फौजी किस्मकी किसी शक्तिकी सहायताका तमाशा खड़ा किये बिना हो जाता है। आये हुए लोग और संस्थाके प्रबन्धकोंके बीच काम करनेवाली शक्ति केवल पारस्परिक प्रेम और आदरकी शक्ति है। गुरुकुल जैसी बड़ी संस्थाके जीवनमें १४ वर्षकी अवधि कोई लम्बी अवधि नहीं है। पिछले दो या तीन वर्षोंमें जो स्नातक यहाँसे निकले हैं, वे क्या-कुछ करके दिखाते हैं, सो तो अभी देखना है। जनता तो व्यक्ति या संस्थाओंको उनके द्वारा प्रस्तुत परिणामोंसे ही परखती है। जनता एक सख्त मुनसिफ है और वह अपने मनमें असफलताओंकी गुंजाइश नहीं रखती इसलिए अन्ततोगत्वा सभी सार्वजनिक संस्थाओंकी तरह गुरुकुलके कामकी जाँच भी जनता ही करेगी। इस प्रकार जो विद्यार्थी इस महाविद्यालयसे पढ़कर निकले हैं और जिन्होंने जीवनके कंटकाकीर्ण पथपर पाँव रखा है, उनके कन्धोंपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। उन्हें सावधानीसे काम लेना चाहिए। और जो इस जबरदस्त प्रयोगकी शुभ-कामना करते हैं, वे यह बात सोचकर आश्वस्त रह सकते हैं कि फलका वृक्षके अनुरूप होना जीवनका अकाट्य सिद्धान्त है। वृक्ष तो सुन्दर और हरा-भरा है तथा एक महात्मा पुरुष उसे सींच रहा है; इसलिए फल कैसा होगा, यह चिन्ता करना व्यर्थ है।

औद्योगिक शिक्षण

गुरुकुलका हितेच्छु होनेके नाते मैं उसकी समिति और अभिभावकोंको एक-दो सुझाव देनेकी धृष्टता करना चाहता हूँ। आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी बननेके लिए गुरुकुलके बालकोंको कोई ठोस औद्योगिक शिक्षण दिया जाना चाहिए। मेरे विचार में तो हमारे देशमें चूँकि ८५ प्रतिशत लोग किसान हैं और १० प्रतिशत लोग उनकी जरूरतको पूरा करनेवाले धन्धोंमें लगे हुए हैं इसलिए खेती और बुनाईका खासा-अच्छा व्यावहारिक ज्ञान यहाँके प्रत्येक तरुणके शिक्षणका एक भाग होना चाहिए। अगर उसे औजारोंका उचित उपयोग आ जाये, अगर वह एक लकड़ीका तख्ता सीधा-सीधा चीर सके और गुनियेका सही उपयोग करके ऐसी दीवार उठा सके जो बिलकुल सीधी हो और जो इस कारण गिर नहीं सकती, तो इसमें बुराईकी कोई बात नहीं है। जो बालक यह सब काम करनेमें समर्थ हो जायेगा, वह जीवन संघर्ष में कभी निराश