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भाषण: गुरुकुलके वार्षिक उत्सवमें

साथ ही यह कह देना भी उचित होगा कि मैं बिलकुल सनातनी हूँ। मेरी दृष्टिमें हिन्दू-धर्म में सब-कुछ आ जाता है। इसकी आदर्श छायामें सभी तरहके विभिन्न विचारोंको आश्रय मिल जाता है और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आर्य-समाज और सिख तथा ब्रह्म-समाज भले ही अपने आपको हिन्दुओंसे अलग वर्गमें रखना चाहें, किन्तु वे सब बहुत जल्दी हिन्दू-धर्ममें लीन हो जायेंगे और उन्हें अपनी परिपूर्णता भी इसीमें मिलेगी। मानवकी अन्य सभी संस्थाओंकी तरह हिन्दू-धर्ममें भी दोष और कमियाँ हैं। [इसलिए] प्रत्येक कार्यकर्त्ताक लिए उनके सुधारार्थ जुटनेकी भरपूर गुंजाइश तो यहाँ है, किन्तु इससे टूटकर अलग हो जानेका कोई कारण नहीं है।

निर्भयताकी भावना

अपनी इस यात्रा के दौरान मुझसे सभी जगह यह पूछा गया है कि भारतकी तात्कालिक आवश्यकता कौन-सी है। मैंने जो उत्तर अन्य स्थानोंपर दिया है, मेरी समझमें यहाँ भी उसे दोहराना ही सबसे अच्छी बात होगी। मोटे तौरपर कहा जा सकता है कि उचित धार्मिक भावना हमारी सबसे बड़ी और तात्कालिक आवश्यकता है। वैसे यह ठीक है कि यह उत्तर बहुत स्थूल है और इससे किसीको पूरा सन्तोष नहीं मिल सकता। और फिर यह ऐसा उत्तर भी है जो किसी भी परिस्थितिमें दिया जा सकता है। इसलिए मैं कहना तो चाहता हूँ कि हमारी धार्मिक भावना सुप्त है, और हम लोग इसी कारण हमेशा भयभीत बने रहते हैं। हम लौकिक और अलोकिक दोनों प्रकारकी सत्ताओंसे डरते हैं। अपने पुरोहितों और पण्डितोंके सामने हम मनकी बात खुलकर नहीं कह पाते। राजसत्तासे भी हम थरथर काँपते रहते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हमारा यह आचरण उनके और हमारे, दोनोंके लिए अकल्याणकारी है। हमारे आध्यात्मिक, शैक्षणिक अथवा राजनीतिक शिक्षकों या शासकोंकी यह इच्छा कभी नहीं रही होगी कि हम सत्यको उनसे छिपाते रहें। लॉर्ड विलिंग्डनने अभी बम्बईकी एक सभामें व्याख्यान देते हुए कहा कि हम लोग किसी बातको अस्वीकार करनेकी इच्छा मनमें रखते हुए भी ‘ना’ कहते हुए हिचकिचाते हैं; उन्होंने श्रोताओंसे निर्भयताकी भावनाका विकास करनेको कहा। निःसन्देह निर्भयताका अर्थ दूसरोंके सम्मान या भावनाकी उपेक्षा करना नहीं है। मेरी विनम्र रायमें यदि हम कोई टिकाऊ और सच्चा काम करना चाहते हैं, तो निर्भयता उसकी सबसे बड़ी और जरूरी शर्त है। निर्भयताका गुण धार्मिक चेतनाके बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता । हम भगवान्से डरना सीखें तो हमारा आदमीसे डरना खत्म हो जाये। अगर हम इस तथ्यको समझ लें कि हमारे भीतर दिव्य अंश है और हम जो कुछ करते हैं या सोचते हैं, वह उसका साक्षी है और वही दिव्य अंश हमारी रक्षा करता है, हमें सच्ची राह बतलाता है, तो यह बात बिलकुल साफ हो जाती है कि हम भगवान्के भयके सिवाय धरतीपर किसी अन्य भयको माननेसे इनकार कर देंगे। जो राजाओंका भी राजा है, यदि हमारी निष्ठा उसमें दृढ़ है तो यह बड़ी-बड़ी राजभक्तिसे भी ऊँची चीज है और साथ ही यह.हर प्रकारकी राजभक्तिका एक सुचिन्तित आधार भी है।