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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उठा लें जिन्हें श्री गोखलेने प्रारम्भ किया था और वे अपने कामका सिंहावलोकन भी करते रहें।

शाही परिषद् (इम्पीरियल कौंसिल) और पब्लिक सर्विस कमीशनके सदस्यकी हैसियतसे उन्होंने जो कार्य किया है उससे उनकी महान् योग्यता और देशभक्तिका परिचय मिलता है। उन्होंने अपने स्वास्थ्यकी परवाह न करते हुए दक्षिण आफ्रिकाके मामलेमें बड़ा परिश्रम किया और मुझे लगता है कि इस कामने उनकी जीवनावधिके दस वर्ष कम कर दिये। उनके सभी कामोंके पीछे जबरदस्त धर्म-भावना रहा करती थी। भारत सेवक समाज (सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) को स्थापित करनेका कारण भी यही था कि वे देशके राजनैतिक जीवनमें धर्मभावनाको दाखिल करना आवश्यक मानते थे। एक बार श्री गोखलेने मुझसे यह कहा था कि मेरे मनमें कभी-कभी, जो राजनैतिक कार्य आजकल किया जा रहा है, उसकी उपयोगिताके बारेमें सन्देह उत्पन्न हो जाता है और मैं बहुत निराश और खिन्न हो जाता हूँ। परन्तु ऐसी घड़ियोंमें, शाश्वत सत्तामें अपनी आन्तरिक निष्ठाके कारण उनकी रक्षा हो जाती थी और मेरे खयालसे इसी प्रकारके विश्वासके बलपर वे निराशाके सभी क्षणोंमें अविजित रहते हुए निरन्तर कार्य करते रहते थे।[१]

श्री गांधीने आगे चलकर कहा कि मैं श्री गोखलेकी इच्छाके अनुसार पिछले वर्ष देशमें घूमता रहा। और चूँकि अब वे मेरा पथ-प्रदर्शन करनेके लिए मौजूद नहीं हैं, मैं समझ नहीं पाता कि मैं सही रास्तेपर हूँ या गलत रास्तेपर। मैंने अपनी यात्रामें यह देखा है कि लोगोंमें देशभक्तिकी भावना तो उमड़ रही है परन्तु ‘भय’ का भूत भी सर्वत्र छाया हुआ है। मैंने यह भी देखा कि धार्मिक सत्ताकी जबरदस्त ताकत समाज-सेवाके मार्गमें बाधक बन रही है और राजनैतिक सत्ता राजनैतिक सेवाक्षेत्रमं हमें आगे नहीं बढ़ने देती। हम लोग परिस्थितियोंके गुलाम हैं सही; परन्तु इसमें दोष हमारा ही है। हम जो विचार आपसमें व्यक्त किया करते हैं उन्हें सबके सामने व्यक्त करनेका हमें साहस ही नहीं होता। हमारी धर्म-सम्बन्धी स्वतन्त्रता पण्डितों और पुरोहितोंने हथिया रखी है और राजनीतिके मामलोंमें भी हम लोग अपने खयालातका इजहार करनेसे डरा करते हैं। यह एक शोचनीय परिस्थिति है और इस बातकी द्योतक है कि हम लोगोंमें चरित्र-बलकी कमी है। जबतक हमारे मनसे यह भय चला नहीं जाता तबतक हम अपने उत्तरदायित्वको निबाहनके पात्र नहीं हो सकते। हमारे पराक्रमी पूर्वज तत्त्वतः हमारे बीच विद्यमान हैं। यदि हम राष्ट्रके स्वर्गीय महा-पुरुषोंके प्रति निष्ठा और निश्चलता, दयालुता तथा देशभक्ति आदि गुणोंको अपना लें तो हमारा राष्ट्र संसारके राष्ट्रोंमें अपना प्राप्य पद ग्रहण कर लेगा।

सभाके अध्यक्ष महोदयने श्री गांधीको उनके व्याख्यानके लिए धन्यवाद देनेके अनन्तर कहा कि मैं श्री गांधीके द्वारा व्यक्त की गई उम्मीदों और अन्देशोंके बारेमें

  1. १. यह अनुच्छेद बॉम्बे क्रॉनिकल, २१-२-१९१६ से लिया गया है।