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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनका खयाल है कि मेरे भाषणकी लोगोंपर जो आम छाप पड़ी, वह यह नहीं थी कि उन्हें मैं अराजकताके लिए उत्तेजित कर रहा था; बल्कि यह कि मैं गैर-सैनिक नौकरशाहोंका पक्ष-पोषण कर रहा था। श्री सेटलूरने मेरी जो आलोचना की है, वह यही सिद्ध करती है कि यदि वे सही हैं तो निश्चय ही मैंने किसी प्रकार हिंसात्मक कार्रवाईको उत्तेजना देनेका अपराध नहीं किया, बल्कि मेरा अपराध यह था कि मैंने राजाओंके हीरे-जवाहरातके आभूषणों आदिका उल्लेख किया।

श्रीमती बेसेंटके साथ तथा मेरे साथ भी पूरा-पूरा न्याय हो, इस उद्देश्यसे मैं नीचे लिखा सुझाव देना चाहूँगा। वे कहती हैं कि मेरे जिस वाक्यने राजाओंको उठकर चल देनेको बाध्य कर दिया, उसे उद्धृत करके वे अपना बचाव नहीं करना चाहतीं; क्योंकि उससे तो शत्रुओंका ही हित होगा। उनके इससे पहलेके कथनके अनुसार मेरा व्याख्यान खुफिया पुलिसके हाथ में पहुँच चुका है; इसलिए जहाँ तक मेरे बचावका सवाल है, उनकी यह क्षमाशीलता किसी कामकी नहीं है। अतः क्या यह अधिक अच्छा न होगा कि यदि उनके पास मेरा व्याख्यान हो तो वे या तो उसे शब्दश: प्रकाशित करवा दें अथवा व्यक्तकिये गये ऐसे विचारोंको ही प्रकाशित करवा दें, जिनके कारण, उनकी रायमें, उन्हें हस्तक्षेप करने तथा महाराजाओंको उठकर चले जानेके लिए बाध्य होना पड़ा।

तो मैं अपने इस वक्तव्यको अपनी पहलेवाली बात दोहरा कर ही समाप्त करता हूँ;[१] वह यह कि यदि श्रीमती बेसेंट बीचमें ही बाधा न उपस्थित करतीं तो मैं कुछ ही मिनटोंमें अपना व्याख्यान समाप्त कर देता और तब अराजकता-सम्बन्धी मेरे विचारोंके विषयमें किसी प्रकारका भ्रम उत्पन्न न होता।

[अंग्रेजीसे]
हिन्दू, १७-२-१९१६

१७३. पत्र: ‘न्यू इंडिया’ को, बनारसकी ‘घटना’ के सम्बन्ध में

[मद्रास]
फरवरी १७, १९१६

आजके अपने सम्पादकीय लेखमें आपने कहा है कि मैंने ईसाई धर्म प्रचारकोंके कहनेसे बनारसवाली घटनाका उल्लेख फिरसे किया है। मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि मेरे वक्तव्यके[२] प्रकाशन में ईसाई-प्रचारकोंका जरा भी हाथ न था और न मैंने किसी मिशनरीसे इस सम्बन्ध में बातचीत-ही की है।

[अंग्रेजीसे]
न्यू इंडिया, १८-२-१९१६
 
  1. १. देखिए “भेट: बनारसकी घटना के सम्बन्धमें ए० पी० आई०को”, ९-२-१९१६।
  2. २. देखिए पिछला शीर्षक।