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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुई होती तो लोगोंने जितना किया, वे उसका आधा भी नहीं कर पाते। अधिकारियोंके आतंकसे कोई लाभ होनेवाला नहीं है। मैं एक प्रसिद्ध सन्तकी इस वाणीसे सहमत हूँ कि “लोगोंको तलवारके जोरपर परहेजगार बनाया जाये, इससे अच्छा तो उन्हें शराबी रहने देना ही है।” यदि किसी व्यक्तिको प्रेमपूर्वक समझाया-बुझाया जाता है, उसे कुमार्गसे विमुख करनेके लिए जो भी प्रयत्न उचित हैं, किये जाते हैं। और तब भी वह यही मानता है कि उसे पी-पीकर अपनी जान ही दे देनी है, तो मेरा खयाल है हमें उसे वैसा करनेके लिए स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिए। हम इस सम्बन्धमें कुछ कर ही नहीं सकते; एक बुराईके निराकरणके लिए दूसरी बुराईका सहारा नहीं ले सकते। सम्बन्धित व्यक्तिको शारीरिक क्षति पहुँचानेसे कोई लाभ नहीं होगा। ऐसा करनेसे सम्भव है, वह कुछ समयके लिए पीना बन्द कर दे, किन्तु वह बार-बार अपनी पुरानी आदतको अपनायेगा। यदि कोई शरीरसे संयम करे और उसका मन उसमें सहयोग न दे तो उस संयमका कोई महत्त्व नहीं है। हिन्दुओंके पवित्रतम तीर्थस्थान काशीकी गलियाँ गन्दी हैं। ऐसी ही गन्दगी [मन्दिरके] गर्भगृहमें भी देखी जा सकती थी, जहाँ बहुत अधिक शोरगुल हो रहा था। ऐसे स्थानोंमें तो पूरी सुव्यवस्था, शान्ति, नीरवता, भद्रता और विनम्रता होनी चाहिए। किन्तु दुःखके साथ कहना पड़ता है कि इन सबका वहाँ सर्वथा अभाव था। पुरोहितगण भक्तोंसे एक रुपयेसे कमका दान स्वीकार नहीं करते। अतीत कालमें काशी विश्वनाथकी यह स्थिति नहीं रही होगी। जब लोग रेलगाड़ियोंसे लाखोंकी संख्या में काशी पहुँचते हैं और वहाँ आकर अपने आपको एक परिवर्तित परिवेशमें पाते हैं, तब सुव्यवस्थित प्रगतिकी एक अनिवार्य अपेक्षा यह होगी कि वे इस बदली हुई अवस्थाके अनुकूल व्यवहार करें। जो बात काशी-विश्वनाथके लिए सही है, वही बात हमारे अधिकांश पवित्र मंदिरोंपर लागू होती है। और यह एक ऐसी समस्या है, जिसके निराकरणके लिए समाज-सेवा संघको आगे आना चाहिए। यह कोई सरकार अथवा नगरपालिकाकी समस्या नहीं है। आप लोग स्कूल जाते ही मन्दिरोंको भूल जाते हैं। अपने-आपको इस कार्यके उपयुक्त बनानेके लिए हमें शिक्षा-पद्धतिमें आमूल परिवर्तन करना चाहिए। आज हम बहुत ही विचित्र स्थितिमें हैं, और मैं आपसे सच कहता हूँ, आज हमारे सामने जो विषादपूर्ण नाटक अभिनीत किया जा रहा है, उसके लिए अगली पीढ़ी हमारे नामपर थूकेगी। यह ऐसी बात है, जिसपर हमें सोचना है और जिसका निराकरण ढूँढ़ना है। यह कार्य दुष्कर है, किन्तु तब इस कार्यको सम्पादित करनेका पुरस्कार भी उतना ही बड़ा है।

मैंने जैसे-तैसे आपके सामने कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं, और मुझे आशा है कि वे आपके अन्तस्तलको छुयेंगे और हृदयको प्रेरित करेंगे। आप जबतक इस महाचक्रको खींचनेके लिए अपना कंधा नहीं लगा देते और आवश्यक सुधार लानेके लिए अपनी शक्ति-भर अधिकसे-अधिक प्रयत्न नहीं करते तबतक आपको कदापि सन्तुष्ट होकर बैठना नहीं है।

अब जो विद्यार्थी तृतीय श्रेणीमें यात्रा करते हैं उनसे एक बात कहना चाहूँगा। आप उन लोगोंपर रौब न जमायें जो आपके वस्त्रोंको देखकर भ्रमवश अपने आपको आपसे