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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे सोचते हैं। वे तो यदाकदा और सौभाग्यवश ही आती हैं। लेकिन मैं आपको यहाँ यह भी याद दिला देना चाहता हूँ कि ये दोनों गुण हममें कुछ इस तरहसे भी विकसित किये जा सकते हैं, जिससे हमें भी और हम जिनके सम्पर्कमें आयें उन्हें भी हानि उठानी पड़े। मैं एक अटपटी-सी बात कह रहा हूँ; क्योंकि आखिर सत्यसे हानि कैसे हो सकती है? लेकिन इस कथनके साथ ही मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि आप जरा इस दृष्टिसे भी सोचिए कि जो सत्य हमें प्राप्त होता है वह हमेशा विशुद्ध सत्य नहीं हुआ करता, अलबत्ता हम उसे बराबर सत्यके नामसे जानते हैं।[१] आपको उस अनुपम ग्रंथ ‘रामायण’ के रावण और राम तथा इन्द्रजित् और लक्ष्मणके दृष्टान्त स्मरण होंगे। लक्ष्मण और इन्द्रजित् दोनोंके गुण समान थे। दोनोंने तप किया था, दोनोंने एक हदतक आत्म-नियन्त्रणकी शक्ति प्राप्त की थी। इसलिए इन्द्रजितको जीतना अत्यन्त कठिन कार्य था। किन्तु, हम देखते हैं कि जितके पास जो-कुछ था, वह निकम्मा साबित हुआ, जब कि लक्ष्मणके पास जो-कुछ था, वह न केवल उनके लिए और वे जिस पक्षसे लड़ रहे थे उसके लिए, बल्कि हमारे लिए भी बड़े कामका साबित हुआ; क्योंकि वे हमारे लिए एक ऐसी निधि छोड़ गये हैं, जिसे हम सँजोकर रखते हैं, जिसके मूल्यको हम पहचानते हैं। तब फिर लक्ष्मणके पास कौन-सा अतिरिक्त गुण था? लक्ष्मण दैवी शक्तिकी प्रेरणापर चलते थे। उन्हें धर्मका बोध था। उनका जीवन सिद्धान्तसे निर्देशित होता था, उनके जीवनका आधार धर्म था, जब कि इन्द्रजित्के जीवनका आधार अधर्म था । इन्द्रजित् नहीं जानता था कि वह कहाँ जा रहा है। धर्महीन जीवनका दूसरा नाम सिद्धान्त-हीन जीवन है, और बिना सिद्धान्तका जीवन बिना पतवारकी नौकाके समान है। जिस प्रकार बिना पतवारकी नौका और उसका माँझी इधर-उधर भटकते फिरेंगे और उन्हें अपनी मंजिल कभी नहीं मिलेगी, उसी प्रकार जिस व्यक्तिको धर्मका बल प्राप्त नहीं है, जिसकी धर्ममें गहरी आस्था नहीं है, वह इस तूफानी संसार-सागरमें इधरसे उधर भटकता रह जायेगा, किन्तु उसे अपनी मंजिल कभी भी नहीं मिल पायेगी। अतः प्रत्येक समाजसेवीको मेरा सुझाव है कि वह इस भ्रममें न रहे कि वह धर्मके बोध और दैवी प्रेरणा द्वारा शुद्धीकृत इनदो गुणोंके बिना अपने देशभाइयोंकी सेवा कर सकेगा। इन दो गुणोंसे युक्त होते हुए भी हम गलतियाँ तो करेंगे किन्तु तब वे गलतियाँ ऐसी नहीं होंगी जिनमें से हमें कोई अपयश लगे, अथवा हम जिस उद्देश्य के लिए प्रयत्नशील हों उसे या हम जिन जन-समुदायोंकी सेवा करना चाहते हों उन्हें कोई क्षति पहुँचे।

हमारी अध्यक्षाने मुझे बिशपके घरके अहातेके ठीक पीछे स्थित अन्त्यजोंके गाँवमें ले जानेकी कृपा की थी। वहाँ उन्होंने मुझे यह भी बताया कि जब इस संघने उस छोटे-से गाँवमें अपना कार्य आरम्भ किया, उससे पहले उसकी क्या अवस्था थी। उस गाँवको देखनेके बाद मैं तो कहूँगा कि वह सफाई और सुव्यवस्थाका आदर्श प्रस्तुत करता है, और वह मद्रासके अधिकसे-अधिक आबाद और केन्द्रस्थ क्षेत्रोंसे भी बहुत

  1. १. यह वाक्य नटेसन द्वारा प्रकाशित स्पोचेज़ ऐंड राइटिंग्ज़ ऑफ महात्मा गांधीसे लिया गया है।